Monday, July 28, 2008

प्यार की खातिर

गुजर गए दिन

राजा और रंक में जो भेद होता है, वही उसमें और मुझमें था। मैं सपने देखता था और जाहिर है कि सपने देखने पर कोई पाबंदी न उस समय थी, न आज है। उसका भाई मेरा दोस्त था। दसियों बार मैंने उसके भाई से अपनी मन की बात कही थी। कहा था कि चार पैसे कमाने की लियाकत अगर मैंने पायी तो तुम्हारी बहन का हाथ मागूंगा, तब तुम मना नहीं करना। उसने कहा एीक है पहले कुछ बन तो जाओ। समय बदला और मेरी रोजी-रोटी की जुगाड़ जम गयी। मैंने उसके भाई को उसका वादा याद दिलाया। भाई ने पहले हां की, फिर अगले ही दिन बदल गया। मेरे दिल पर चोट लगी। मैंने बहुत चिरौरी की। कहा की ऐसा न करो। यह जो मैं आज हूं वह तुम्हारी बहन के प्रेम में पड़कर ही बना हूं। मेरी पूरी उपलब्धि तुम्हारी बहन की अमानत है। अगर तुम्हारी बहन मुझे स्वीकार नहीं करती तो मैं इस उपलब्धि को लिये-लिये कहां फिरूंगा। जैसा कि जालिम जमाना करता है, वही उसके भाई ने किया। वह नहीं माना और अपने वादे से मुकर गया। मैं रोया, मेरा दिल रोया और वक्त ने घाव भरने शुरू कर दिये।

वक्त की करवट

इतने लम्बे अरसे के बाद आज उसका फोन आया। वह मुझसे मिलना चाहता था। मैंने कहा किसलिये। वह बोला कुछ बात करना चाहता हूं। मैंने कहा आ जाओ। हमने मिलकर बातें की। बैएकर दारू पी। मुझे उसको दारू पिलाना अच्छा लग रहा था। अच्छा इसलिए क्योंकि वह परेशान था। फटेहाल था। बेरोजगार था। उसकी बातों में उसका पुराना दम्भ गलकर बह रहा था। मैंने उसे और दारू पिलायी। वह रोने लगा। बोला तुम मेरे लिये कुछ करो। हजार-दो हजार की नौकरी की जुगाड़ ही करा दो। उसकी आंखों में तैरती बेचारगी देखकर मुझे भीतर तक संतोष हुआ। मैंने कहा कि देखो यार तुम्हारी बहन के लिए अब भी मेरे दिल में कोमल भावनाएँ हैं। उन भावनाओं को आज मैं किस रूप में देखूं यह स्पष्ट नहीं है। क्योंकि वह भी शादीशुदा है और मेरा भी परिवार है। उन्हीं पुरानी मीएी भावनाओं को ध्यान में रख मैं तुम्हारे लिये जो बन पड़ेगा वह करूंगा। मेरा इतना कहना था कि वह लगभग रोते हुए मुझसे लिपटने लगा और बोला कि बिलकुल एीक कहते हो। मैं यही सोचकर तुम्हारे पास आया था कि तुम्ही मेरी बहन से सच्चा प्यार करते थे। उस सच्चे प्यार की खातिर मेरी मदद तुम जरूर ही करोगे और देखो मेरा सोचना कितना एीक निकला। आखिर तुम मेरी मदद करने के लिए मान ही गये।

देना पड़ेगा

स्टेशन पर उसे छोड़कर मैं वापस लौटा। मन में उसके लिए गालियां उमड़ रही हैं। स्वार्थी, कमीना। दूसरे क्षण उसकी बहन का कोमल चेहरा मेरी आंखों में उतर आया है। आज मेरी जो भी औकात है, वह उसके बाप के सामने प्रस्तुत करने के लिए ही मैंने कमाई थी। औकात की इस कमाई को मैं उसके सामने तो प्रस्तुत नहीं कर सका, लेकिन इस कमीने को मैं अपने व्यक्तित्व की एक फूटी कौड़ी भी देने को तैयार नहीं हूं। मेरी आंखों में उसकी बहन के कोमल चेहरे में याचना उभरती है। गाली देती हुई मेरी जीभ लड़खड़ाने लगती है। मैं कमजोर पड़ने लगता हूं। वह व्यक्तित्व जो मैंने उसकी बहन के लिए कमाया था, उसका भाई उसमें से कुछ हिस्सा मांगने आया था। शायद मुझे कुछ भुगतान करना पड़ेगा। मेरे दिल की कोमल भावनाओं के खातिर शायद मुझे उसकी कुछ मदद करनी पड़ेगी।

8 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

बढिया भाव, अच्छी कहानी- बधाई

Kavita Vachaknavee said...

Blog lekhan ke lie shubhkamnayein va badhaee.

मोहन वशिष्‍ठ said...

वाह आत्‍माराम जी बहुत अच्‍छा भाव और हां वक्‍त हर घाव को भर देता है Be happy in your family

Advocate Rashmi saurana said...

bhut badhiya kahani. jari rhe.
aap apna word verification hata le taki humko tipani dene me aasani ho.

Dr. Sudha Om Dhingra said...

मन की बात कह देना भी एक कला है,
बहुत अच्छी कहानी कही है. बधाई
सुधा ओम ढींगरा

Udan Tashtari said...

बढ़िया है, नियमित लिखें.

तेजेन्द्र शर्मा said...

भाई आत्माराम जी,
अभी तक गर्भनाल के माध्यम से ह आपसे परिचय था किन्तु आपका ब्लॉग देख कर रचनाकार से भी मुलाक़ात हो गई। आपकी क़लम में जान है। आपका लेखन महसूस किया हुआ लेखन है। आप लिखते रहिये हम पढ़ते रहेंगे।

bhanu said...

यह कहानी सच के बहुत करीब मालूम होती . इसमे आपने पात्रो के साथ बडा न्याय किया है लेकिन बड़ी सफाई के साथ आप एक बात छुपा गए की उस लड़की का क्या जो भाई के दोगलेपन और अपने प्रेमी के महानता बोध के बीच फंस कर रह गई .कंही एसा तो नही कि "ये प्यार था या कुछ और था .............?