Friday, June 26, 2009

अपराधबोध

जानकार ऐसा कहते हैं कि हमारा राष्ट्रीय चरित्र विक्टोरियन अपराधबोध से पीड़ित है - एक ऐसी मानसिकता जो हमारे आचार-व्यवहार में दिखाई देती है, जो हमें उन्मुक्तता के साथ प्रदर्शित होने में बाधा बनती है. हमारा खान-पान, जीवनशैली सभी इससे संचालित होते हैं. हमारे सम्पूर्ण चरित्र पर यह शैली हावी हो गयी है. एक 'गिल्ट' है जो सर्वत्र व्याप्त है. एक अघोषित आचरण हम सब पर छा गया है. दुनिया के बहुतेरे समाजों में जो उल्लास-उमंग और जिजीविषा दिखाई देती है वह हमारे यहाँ सिरे से गायब है. कोई भी अवसर हो 'गिल्ट' की यह वृत्ति तत्काल वहाँ उपस्थित हो जाती है.

मातु-पिता-गुरु-प्रभु की बानी, बिना विचारि करिय शुभ जानी.

हमारे यहाँ विचारवान बनने पर ज्यादा जोर नहीं है. हमें अनुसरण करने की सीख बचपने से दी जाती है. यही कारण है कि भक्तिभाव का ज्यादा जोर हमारे स्वभाव में यों घुल-मिल गया है कि जैसे दूध में पानी. यूँ लगता है कि हमारा पूरा समाज वीतरागी बन गया है - जैसे उदासी समाज है. यूँ तो हमारा समाज उत्सवप्रिय है. उत्सवधर्मिता हमारी जीवनशैली है, लेकिन अब ये दो विपरीत ध्रुव हैं. एक तरफ उत्सवप्रियता है दूसरी तरफ अधिसंख्य सामाजिक दायित्वों के प्रति उदासीनता का भाव. हमारे अधिकांश उत्सव समाज की सन्निकटता को उजागर करते हैं. पर यह सन्निकटता या मेल-मिलाप एक खास तरह की रस्मों को निभाने की तरह हो जाता है.

जीवन में बिना कीमत कुछ भी हासिल नहीं होता. बेकीमत सिर्फ शरीर मिला है और विचार भी बेकीमत उठते हैं. विचार जब आचरण में बदलते हैं तब वे मूल्यवान हो जाते हैं, लेकिन ये बड़ा श्रमसाध्य और पीड़ाजनक कार्य है. मन और शरीर को बड़ी तकलीफ होती है. विचारों का आवेग पानी जैसा है- सतत प्रवाहमान. उसे अगर रोका गया तो वह दाएँ-बाएँ फैलने लगता है. एक तरह से अवरोध को तोड़ने की ताकत इकट्ठी करना शुरू कर देता है. किसी भी विचार को अगर बाधित किया जाए तो मन को बेचैनी से भर देता है, अस्तु विचारों की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है.

जीवों में मनुष्य ही ऐसा है जिसने स्वतंत्रता के साथ परतंत्रता का स्वाद चखा है और बयान किया है वरना प्रकृति में सभी स्वतंत्र हैं, मनुष्य को छोड़कर. इसलिए हमारा अंतस बेचैन है. विकासक्रम में हम आगे इसलिए हैं क्योंकि हमने किसी हद तक प्रकृति के नियमों को तोड़ा है. यह तरक्की बंधन पैदा करती है. यह बंधन सुख के साथ दुख भी देता है. सुविधाएँ हमें आरामतलब बनाती हैं. वे हमें बाँधती हैं.

प्रकृति में जितने अवयव हैं वे सब स्वतंत्र हैं इसलिए स्वतंत्रता प्राकृतिक है. चिड़ियाँ उड़ने को स्वतंत्र हैं, पेड़ झूमने को स्वतंत्र हैं, लेकिन आदमी हँसने को स्वतंत्र नहीं है. हमने गरीब-अमीर शब्दों का आविष्कार किया है और खाई बनायी है. असमानता हमने पैदा की है. कहा जा सकता है कि वनमानुषों का समाज कई अर्थों में समरस था. लेकिन विकास का चक्र उल्टा नहीं घूमता. लिहाजा वर्तमान युग की तथाकथित जितनी भी तरक्की है वह प्राकृतिक नहीं है. हमने प्रकृति के शोषण का पाप किया है लिहाजा भीषण त्रासदियाँ पैदा होती हैं. हमने स्वतंत्रता को बाहर खोजने की कोशिश की है, लेकिन वह हमारे आचरण में नहीं है. हम या तो किसी के द्वारा शासित हैं या फिर किसी पर शासन करना पसंद करते हैं.

Wednesday, June 24, 2009

हिंदी के पारस पत्थर

मुझे उसके पिता के बारे में पता नहीं था, पर उसके भाई को मैं जानता था. बचपने में ही सही मैंने उस पर एक लम्बी कविता लिखी थी. उसे देख मैं आज भी गहरीर् ईष्या में डूबने-उतराने लगता हूँ. उसका लिखा हुआ कोई महान साहित्य होगा, स्वयं वह भी इस बात पर शायद ही इत्तेफाक रखता हो. उसका एक कहानी संग्रह मैंने पढ़ा है. किस कदर उबाऊ और कठिन है, बताना मुश्किल है. अतुकांत कथा, कहीं से शुरू होगी, कहीं खत्म. उसका दावा है कि यह भविष्य का पाठ है. बातों की तरह उसकी कहानी में भी विशिष्ट बने रहने का आतंक बना रहता है. एक कृत्रिमता लगातार बनी रहती है. लिखता वह हिंदी में है, पर अधिकांश बातें अँगरेजी में करता है. अँगरेजी में बात करने से रौब के साथ-साथ विश्वसनीयता बरकरार रही आती है. अँगरेजी आज के समय की देवभाषा है. पूरी दुनिया का पता नहीं पर हमारे यहाँ आज भी श्रेष्ठी-वर्ग में इसे रौब-दाब के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.

उसकी बोली-बानी मीठी और विचार तार्किक हैं. शब्दों का चयन और उनका उच्चारण बेलाग है. यह सलीका उसने परिवार के बड़ों से सीखा है. इसे उसने शुरूआती सफलता के मंत्रों की तरह रटा होगा. पहले प्रभाव में रोचकता पैदा हो इसमें बातचीत का लहजा महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. बोलने का उसका ढंग, उसकी विद्वता उजागर करता है. अपने को वह बहुत कंजूसी से खर्च करता है. बहुतेरे अपने आप को बाल्टी के पानी जैसा उड़ेल देते हैं कि अगर सिर से पाँव तक सराबोर हो जाए, पर बाल्टी के पानी का भीगा, सूखने भी जल्दी लगता है. वह अपने आप को चिलमची की टोटी से निकलने वाली पतली धार की तरह खोलता है. अपने को उलीचने की उसे कोई जल्दबाजी नहीं. जितनी देर वह रिसता है, अगला उतनी देर तक उसके प्रभाव में बना रहता है.

उसके पास सिलसिलेवार किस्से हैं, जिन्हें वह एक के बाद एक सुनाता जाता है, हँसता कम हँसाता ज्यादा है. अगले के मर्म को छूने के लिए वह बातों के पैंतरे आजमाने से नहीं चूकता. यही कारण है कि उसके पुरुष मित्रों की अपेक्षा महिला मित्र अधिक हैं. वह सुदर्शन न सही, उसका व्यक्तित्व चुंबकीय है. वह उच्च शिक्षा प्राप्त है. इसका वह बहुत कम इजहार करता है. वह जो भी लिखता है उसे इतिहास में दर्ज होना है, ऐसा उसके निकट मित्र कहते हैं. वे यह भी कहते हैं कि उसे अपने बड़े भाई के कारण साहित्य में बड़ा नुकसान उठाना पड़ा. यानी लम्बे समय तक उसे रचनाकार के तौर पर स्वीकार नहीं किया गया, बल्कि उसके भाई की ख्याति को उसके साथ चस्पा किया जाता रहा है. पर सच यह भी है कि उसे अपने भाई की ख्याति का लाभ भी बहुत मिला है, वरना उस जैसै क्रांतिकारी रचनाकार दर्जनों की संख्या में चप्पलें फटकारते घूम रहे हैं साहित्य सदन के बाहर.

उसकी एक छवि साहित्य-सदन के जुगाडुओं के तौर पर भी रही है. जिस नैतिकता की वह बात लिखते हुए करता है. वह उसके आचरण में कहीं दिखाई नहीं देता है. जिन दोगले कामों के लिए वह समाज को कोसता है, स्वयं भी वह वैसे काम करने में उसे गुरेज नहीं.

सत्ता में रहकर उसकी मुखालफत करना तलवार की धार पर चलने जैसा है. वह ऐसी किसी तलवार की धार पर नहीं चलता. वह सुविधाभोगी मीठा क्रांतिकारी रचनाकार है. अबूझ किस्म की कविताएँ, कहानियाँ, हाईकू लिखता है और हर तीसरी लाईन में अँगरेजी में लिखे-पढ़े जाने को 'कोड' करके अपनी विद्वता बखान करता है.

इन दिनों वह पारस पत्थर बनने के दौर में गुजर रहा है. कल जब वह पारस बन चुकेगा और अपने भाई की खाली छोड़ी जगह पर विराजेगा तो बहुतेरे पत्थरों को स्पर्श करके उन्हें सोना बनाने में समर्थ होगा.

Tuesday, June 23, 2009

छबीली

उनके दफ्तर में उन्हें लेकर कई तरह की चर्चाओं का बाजार गर्म रहता है. वे कब आती हैं, क्या करती हैं उनसे कोई नहीं पूछता. लेकिन उनकी काया बताती है कि ब्यूटीपॉर्लर वे नियमित जाती हैं. दिनोंदिन उनकी उमर घट रही है और कई बरस पहले दिखती प्रौढ़ता अब वे नाजुकता में बदलती जा रही है. अपनी इस नाजुकता की वे बहुत सम्हाल करती हैं. इस उम्दा निखार का राज पूछने पर पहले वे मुस्काती हैं फिर राज खोल कर बताती हैं- 'लॉफिंग क्लास' ज्वॉइन कर ली है, उसी का नतीजा है. फिर जोरदार ठहाका हा.. हा.. हा.. और अलविदा हो जाती हैं.


उनसे नित नयी खुशबू आती है. किसिम-किसिम के परफ्यूम उनके पर्स में मौजूद रहते हैं. दसियों 'आसामियों' पर वे इसके जरिए रुतबा जमा चुकी हैं. उनसे जलने वाले इसे उनका छिछोरा काम मानते हैं. वे निश्छलता के साथ दूसरों की फिकर हवा में उछाल देती हैं. और 'आई डोंट केयर' मार्का अदा फेंकती हैं. वे हमेशा लकदक बनी रहती हैं और अपनी विशिष्टता को कायम रखने का इसे औजार मानती हैं. संघर्षभरे दिन उन्होंने भी देखे हैं, जब उन्हें नियम से काम करने पड़ते थे. रोजनदारी की नीरस जिम्मेदारियाँ उनके नाम भी थीं. हफ्ते में एकाध दिन उन्हें भी देर तक रुककर काम करना पड़ता था. खूसट टाइप का उनका बॉस उन्हें बेवजह अपने सामने बिठाए रखता था. बॉस का मानना था कि महिलाओं को साड़ी पहनकर ऑफिस आना चाहिए, इस कारण उन्हें अक्सर ही साड़ी पहनना पड़ती.


काम में वे हमेशा औसत रहीं. जिस काम के लिए उनकी भर्ती हुई, उससे जुड़े तमाम कामों को वे सीख चुकीं और सहजता से कर लेती थीं. उन्होंने यह भी सीखा कि 'काम करना' और 'साबित करना' दो अलग-अलग बातें हैं. यह आवश्यक नहीं कि अच्छा काम करने से होता है, अच्छा काम साबित करके दिखाने से भी होता है. उन्होंने यह कला भी सीख ली थी. पहले पहल उन्होंने काम की महत्ता को समझा. सीरियस होकर काम किया. पर धीरे-धीरे वे यह समझ गईं कि काम करने से ज्यादा उसे प्रस्तुत करने में नंबर ज्यादा मिलते हैं. काम कोई भी करे, उसे प्रस्तुत करने उन्हें ही जाना चाहिए.


बॉस उनकी सोहबत पसंद करता है, इस सच्चाई को उन्होंने धीरे-धीरे स्वीकारना शुरू कर दिया था और तेजी से उनमें बदलाव होने लगे. अब वे मौसम के हिसाब से साड़ियों के रंगों का चयन करने लगीं. हफ्ते में कुछ दिनों बालों को बाँधकर आने लगीं. यह सब इसलिए होने लगा क्योंकि साहब को पसंद है. साहब के घरेलू मुद्दों पर भी वे धीरे-धीरे बात करने लगीं. साहब पर कौन से रंग के कपड़े ज्यादा फबते हैं, वे यह भी तय करने लगीं. साहब की घरेलू खरीददारी में भी उनका सहयोग बढ़ने लगा और ज्यों-ज्यों वे वहाँ व्यस्त होने लगीं ऑफिस की जिम्मेदारियों से उन्हें मुक्ति मिलने लगी.


वे धाराप्रवाह अंगरेजी बोलती हैं और कई बार भूल जाती हैं कि सुनने वाले को ठीक से हिंदी भी समझ नहीं आती. बोलने के अलावा काम करवाने की कला भी उन्हें आती है. कई बार चपरासियों से भी वे मीठे बोल बोलती पायी गईं. वे काम से काम रखने वाली हैं और बेवजह बात करना उन्हें फिजूल लगता है.

सीखने की उनमें जबरदस्त इच्छाशक्ति है. हर वह काम जिसमें फायदा संभावित है उसे सीखने की लगन वे पैदा कर लेती हैं. उनका सम्पूरन व्यक्तित्व सीख-सीख कर ही बना है. एक तरह से वे भारतीय संविधान हैं. फर्क इतना है कि भारतीय संविधान में सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाय की भावना प्रबल है, जबकि उनके भीतर स्वयं की सुख-सुविधा और रुतबा कैसे लगातार बढ़ता जाए इस बाबत उन्होंने चुन-चुनकर दुनियादार और कामयाब लोगों की आचार-व्यवहार को अपने में आत्मसात कर लिया है. थोड़ी-थोड़ी जानकारी वे हर क्षेत्र की रखती हैं. वे लिखती हैं, पढ़ती हैं, प्रस्तुत होना जानती हैं. कुल मिलाकर उनके तरकश में किस्म-किस्म के तीर मौजूद रहते हैं.


वे नये जमाने की सफल किरदार हैं और उनके बारे में लोग 'ऑंखों की भाषा' में बात करतें हैं.

Friday, June 5, 2009

पहेली

बहुत बुरा लगता है तब
और अच्छा लगता है जब
क्यों कर उपजती है कविता
अबूझ है यह सवाल
उसी से ठंडा - उसी से गरम मार्का.