Friday, April 20, 2012

पिछले दिनों हमें अपने उस्ताद की लगभग एक दशक पुरानी फिल्म स्क्रिप्ट हाथ लगी. गद्य का ऐसा नमूना विरल है. इसे पढ़कर मैं गद्-गद् हो गया. आप भी इसका आनंद उठायें -


कमल किशोर तिवारी - 1959 में रायपुर में जन्म। पूना फिल्म संस्थान से पटकथा एप्रीसियेशन प्रशिक्षण. दो दर्जन से अधिक वृत्तचित्रों, विज्ञापन फिल्मों के स्क्रिप्ट राइटर. हिंदुस्तानी सूफी परम्परा पर 'धरती बरसे' नामक सीरियल लिखा. फिल्मों की गंभीर पत्रिका पटकथा के लिए लम्बे समय तक लेखन कार्य. छत्तीसगढ़ राज्य के 'बेस्ट स्क्रिप्ट राइटर' अवॉर्ड से पुरस्कृत. गंभीर किताबें पढ़ने के शौकीन. वर्तमान में हिंदी साप्ताहिक रोज़गार और निर्माण के संपादक. सम्पर्क : ई-8/116, त्रिलंगा, भोपाल (मध्यप्रदेश) ईमेल - kamal.t.bpl@gmail.com

पातालकोट के आदिवासी

कितने भोले कितने निष्पाप, प्रकृति के कितने पास,
जीवन के उत्साह से छलकते,
कितने सुन्दर वे, कितने सरल।
प्रकृति के महकते पुष्प वे, वनों में खिले
देखें उनके चेहरों को
न बीते कल के दुख की परछाई,
न आगत के महत्वाकांक्षी स्वप्नों का बोझ।
डूबे वे आज के क्षणों में।
जीत हर लम्हा आज का।
दुख में दुखी, आज,
सुख में प्रसन्न, आज,
जो भी हैं, आज।
न कल था, न कल होगा।
सीखें आज उनसे
जीवन की हंसी के रहस्य।

जब आंखों की हदों के बाहर तक बिखरी हो प्रकृति की विराट अभिव्यक्ति, तब यह सवाल बेमानी मौन हो जाते हैं हम।

शायद यही वजह है कि जबलपुर, सरगुजा, रायगढ़ और शहडोल में रहती जनजाति भारिया की उत्पत्ति के विषय में कुछ खास पता नहीं।

छिंदवाड़ा के तामिया ब्लॉक के पातालकोट की गहराईयों में रहते भारिया, बताते हैं कथा अपनी उत्पत्ति की। आदिदेव महादेव ने पृथ्वी बनाई और फिर अपने त्रिशूल से नदी, पहाड़ों, वृक्षों का निर्माण किया। फिर बनाए एक नारी और एक पुरुष। इनकी संतानों में से एक ने खेती-किसानी शुरू की, ये गोंड, वोल हुए। एक संतान ने देवताओं की पूजा-अर्चना की वह भूमिया कहलाया। ये भूमिया वंशज विंध्य, कैमोर के पठारों से होता छिंदवाड़ा पहुंचा और यही भारिया कहलाया। गहरी घाटी है यह। धरती के भीतर एक दुनिया हो जैसे - पातालाकोट - कोई 1200 से 2000 फीट गहरी इस घाटी में अपना सहज-सरल जीवन जीते रहते हैं भारिया।

मध्यम कद के, चौड़ी नाक, लहरदार बाल, सांवला रंग लिये भारिया जैसे पुराकथाओं से उठ आए हैं यहां। गोंड जनजाति के नज़दीक दिखने वाले भारियाओं के शरीर की बनावट उसकी लय जैसे हमारे भीतर आदिम स्मृतियों के तार जोड़ती है।

न जाने किस पुरातन समय में, साथ रहने की भावना ने जगाए थे हमारे भीतर साथ रहने के स्वर, आदिम स्वरों पर आज भी बजती है भारिया जिंदगी। कुछ ऊंचे स्थानों पर बने ये गांव, ढानों में बंटे होते हैं। दस से बीस घर एक कतार में बने। खुद बनाते हैं वे अपने घर। सोमवार या शुक्रवार को 'भूमका' या पुजारी की पूजा के बाद। घर में अनाज की कोठरी, देवता का स्थान, रसोईघर, चक्की जैसी चीजें होती हैं। पीछे बाड़ घेर कर जानवरों का कोठा बनाया जाता है। घर की दीवारों पर जैसे यादों से निकल कर बैठ जाते हैं मिट्टी के मोर, तोता, हाथी आदि।

सीमित हैं जिंदगी की जरूरतें यहां और शायद हर कहीं। भारियाओं के बस दो जोड़ कपड़े, ओढ़ने बिछाने की चादरें दरी यही बनाते हैं। हां जीवन का सौंदर्य अपने ऊपर अभिव्यक्त हो इसके लिए महिलाएं गहने बड़े शौक से पहनती हैं। पैरों में पहनी जानी वाली बिछिया हो, या पैर पट्टी, करघन हो या हसली, एक सहज सौंदर्य की सहज अभिव्यक्ति होती है यहां।

इनका मुख्य भोजन मक्का, जुआर, कोडो, कुटकी, उड़द सेम की दाल और कंद मूल तथा मौसमी सब्जी ही हैं। सब्जी बनाने में महुआ के तेल का इस्तेमाल होता हैं और खाना ऐसा कि लगे आपकी जीभ पर आग रखी हो। मिर्च से कुछ ज्यादा प्रेम है इनका। भारिया अपने आज में मस्त रहने वाले हैं। यह मस्ती एक अलग रंग पाती है महुए से बनी शराब के साथ। जीवन का कोई भी मौका हो, कोई भी त्यौहार, उत्सव या संस्कार जिंदगी के मस्त रंग झलक उठते हैं मछुए के संग। यह शराब वे खुद बनाते हैं। देवी, देवताओं की पूजा, मनौती में उपयोग की जाती हैं यह महुए की शराब। रोज के जीवन की एक हिस्सा है, जीवन की मस्ती हैं और अपने आज के उत्सव को मनाने की प्रवृत्ति हैं, महुए की शराब।

जब जिंदगी के रंग छलकते हों, जब मन मना रहा हो उत्सव अपने आज का, जब हाथों में, पावों में उतरने लगे उत्सव की खुशियां तब नृत्य अपने आप होता है। जीवन जैसे खुद अपने होने की खुशी मनाता है। ढोल और मांदल की थाप हो, नगाड़ों की गूंज हो तो जिंदगी के होने का पर्व मनाया जाता है। बार-बार हमेशा एक कभी न खत्म होने वाला सिलसिला। यही नृत्य होता है।

पथरीली जमीन पर, एक कठिन जीवन है भारियाओं का। खेती पूरी तरह वर्षा पर निर्भर है और मुख्यत: ज्वार, मक्का, कोदो, कुटकी इनकी खेती की उपज। मक्के की खेती ढलान वाली पहाड़ी जमीन पर की जाती है। जेठ और आषाढ़ के महीनों में खेतों में गोबर की खाद डाल कर दो बार हल से जुताई और दो बार बखर चलाया जाता है। दो-ढ़ाई महीने बाद निंदाई होती है। क्वार में लगभग फसल पक जाती है।

गर्मी में होती है जुआर की खेती। जेठ और आषाढ़ के तपते महीनों में हल चलाकर खेत तैयार होते हैं और बरसात के आते ही फसल बढ़ने लगती हैं।

ज्येष्ठ और आषाढ़ के महीनों में कोदो और कुटकी की खेती होती है। पातालकोट के कुछ गांवों में थोड़ी सी जमीन पर धान की भी खेती होती है। मूंग, उड़द, गेहूं भी थोड़ी बहुत मात्रा में ये पैदा कर लेते हैं। अपने घरों के पीछे की बाड़ी में लगभग सभी परिवार थोड़ी बहुत सब्जी उगा लेते हैं।

बरसात के मौसम में लौकी, कद्दू, बैंगन, टमाटर, मिर्च, फूल गोभी, ग्वार, भिंडी, सेम, करेले, तरोई जैसी सब्जियां, भारिया पैदा कर लेते हैं।

खाने-पीने के मामले में भारिया मुर्गी पालन का भी सहारा लेते हैं। साथ ही भरी बरसात में चढ़ी नदी में मछली मारना और छोटे-मोटे शिकार करना भी हिस्सा हैं इनके जीवन का। नदी पर 'कुमनी' लगा कर मछली पकड़ना भारियाओं की खास कला है। सप्ताह में एक बार भरने वाला बाजार या हाट एक धुरी है भारिया जीवन की। अपनी जरूरतों के मुताबिक छोटी-मोटी खरीददारी करने में जहां हाट की भूमिका है, वहीं एक सामाजिक मेल-मिलाप का मौका भी देता है यह हाट। ज़रूरत के लिये कभी अपने द्वारा पैदा किया अनाज बेचना हो या बरसात और गर्मी के मौसम में थोड़ा बहुत अनाज खरीदना हो, दोनों कामों के लिये जरूरी है हाट। वनोपज को बेचने का काम भी हाट में होता है। हर्र, बहेरा, चिरोंजी, आंवला और तेंदूपत्ता संग्रहण के लिये सरकार इन हाटों में संग्रहण केन्द्र खोलती है। महुआ भी बेचा जाता है, लेकिन अपनी जरूरत के हिसाब से अपने पास रखने के बाद। हाट सिर्फ खरीद-फरोख्त के स्थान नहीं हैं, वे भारिया जीवन के साप्ताहिक पर्व होते हैं, वहां जाना, वहां मिलना-जुलना, वहां जीना, यहीं भारिया जीवन का सहज अंदाज है। एक साथ रहते, एक सा जीवन जीते भारिया अपने बीच उपजातियों के भेद नहीं पालते। वे सभी एक होते हैं। लेकिन वे अपने-आप को अनेक गोत्रों में बांटते हैं। समान गोत्र वाले लगभग संबंधी समझे जाते हैं और वे आपस में विवाह नहीं करते। विवाह स्वगोत्र में नहीं होता लेकिन वे आपस में एक-दूसरे की भरपूर मदद करते हैं और एक ही देवी-देवता की पूजा करते हैं। बर्हिविवाह की प्रथा में भारिया बुआ या मामा की संतानों से विवाह करते हैं।

आजकल लड़कों के विवाह की औसत उम्र 17-18 साल और लड़कियों की उम्र 15-16 साल है। खेती के काम निपटाकर लड़कों के पिता शुरू करते हैं अपने पुत्रों के लिये दुलहिन ढूंढने का काम। हाट-बाजारों में, रिश्तेदारों में, जहां पता मिल जाता है तो लड़के के पिता अपने दो रिश्तेदारों साथ पहुंचते हैं लड़की के घर। वहां लड़के-लड़की के विषय जानकारी, घरों की स्थिति जैसी बातों पर चर्चा होती है। बात पक्की होने और उसी साल शादी की संभावना पर लड़का देखने लड़की के पिता जाते हैं। विवाह पक्का हो जाता है।

फिर निश्चित तिथि पर दुलहिन बनाने या फलदान की रस्म होती है। लड़के के पिता दुलहिन के लिए लुगड़ा, पोलका, नारियल लेकर उनके घर पहुंचते हैं। खाना खाने के बाद शाम को आंगन में ज्वार के आटे का चौक बनाकर वहां दीपक जलाते हैं। लड़की ससुराल के कपड़े पहन पहले दीपक और फिर वर पक्ष के लोगों, बुजुर्गों को प्रणाम करती है। वर का पिता लड़की को नारियल देता है और फिर खेर्चो यानी 'वधू धन' की रकम और अनाज आदि तय कर विवाह की तारीख पक्की की जाती है।

विवाह की तिथि के एक हफ्ते पहले वर का पिता, वधू के पिता के पास खर्ची, जिसमें दाल, चावल, जुआर का आटा, पचास रुपये तक नगद राशि भेजता है। खर्ची या वधू धन, बारातियों की आव-भगत के लिये होता है। तीन-चार दिनों तक चलता हैं यह समारोह।

मांडवे के दिन गांव के रिश्तेदार, मित्र आदि मिलकर मंडवा बनाते हैं। लकड़ियों से बने मंडवे को गूलर के पत्तों, जामुन की डालियों से सजाया जाता है।