Friday, September 4, 2009

भरा-पूरा इंसान

उन्हें पढ़ते हुए अक्सर ही ईर्ष्यालु हो उठता हूँ कि देखो 94 साल के बुजुर्गवार किस कदर ज़िंदगी के मज़े उड़ा रहे हैं. रोज़ दो पेग शैम्पेन और बढ़िया स्कॉच पीते हैं. महिला-मित्रों और तमाम नामी लोगों के किस्से चटकारे लेकर लिखते हैं. दुनियाभर की खुशफ़हम बातें सुनाते हैं और खुद गुड़ खाकर दूसरों को गुलगुले खाने की सलाह देते हैं. हैं न कमाल के ज़िंदादिल इंसान.

बात कर रहा हूँ मशहूर हस्ती खुशवंत सिंह के बारे में, जिनके लिखे को मैं बेहद पसंद करता हूँ. उनके हफ्तावार छपने वाले कॉलम को हर हाल में पढ़ता हूँ. चुनाचे मैं उनका मुरीद हूँ और चंद प्रेरणास्पद लोगों की सूची में उन्हें अव्वल दर्जे पर रखता हूँ. अब सवाल है कि फिर क्योंकर उनसे ईर्ष्या होती है. तो वो ये कि किस कदर ज़िंदादिली भरी है इस इंसान में. दुनिया जहान के बोझों से मुक्त. ज़िंदगी को खालिस मज़ा उठाने की चीज़ मानते हुए उनका फलसफा एकदम साफ है. यह जीवन रोने-बिसूरने के लिए नहीं है - यह तो मौज़ करने के लिए है. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि दुनिया को लेकर उनका रवैया गैर जिम्मेदाराना है. जब जरूरत पड़ती है वो दुनियावी मुद्दों पर बगैर लाग-लपेट के अपनी राय जाहिर करते हैं.

कुल जमा इतना भर कि उनके लिखे को बाँचकर खुशी मिलती है और ईर्ष्या इसलिए कि उनके जैसा साफ और बेबाक लिखने का हुनर कहाँ से पैदा होता है, नहीं जानता. हालाँकि वे मूल तौर पर अँगरेजी में लिखते हैं (पक्के तौर पर नहीं जानता) और हिन्दी में अनुवाद होकर छपता है. शायद इसीलिए खुशवंत सिंह को पढ़ते हुए वैसा घरोवा महसूस नहीं होता जैसा हिन्दी के नामी और दीगर लेखकों को पढ़कर होता है. उनके लिखे की दिलेरी की एक वजह शायद अँगरेजी में लिखे जाने की वजह से भी पैदा होती है. अँगरेजी हमें हिम्मती बनाती है - बहुत-सी बातों, परम्पराओं, धारणाओं से मुक्त करती है. यह बात केवल अँगरेजी के साथ ही नहीं दुनिया की तमाम दीगर भाषाओं पर लागू हो सकती है. यानी आप मातृभाषा से इतर किसी भी भाषा में लिखेंगे तो अतिरिक्त दिलेरी अपने आप आ जायेगी. हालाँकि नामी रचनाकारों ने मातृभाषा में भी अद्भुत लिखा और नये मिथ-मुहावरे गढ़े हैं.

हालाँकि अपने सुदीर्घ जीवन में खुशवंत सिंह ने भी कथनी और करनी के द्वैत का सामना किया होगा. बहुतेरे लोग उन्हें करीब से जानते होंगे, लेकिन मुझ जैसे उनके पाठक-प्रशंसक उनके बारे में उतना ही जानते हैं जितना उन्होंने अपने बारे में बताया या कि फिर उनकी किताबों, संस्मरणों या आत्मकथा से बयान हो सका. यहाँ जिक्र लाज़िमी है कि हिन्दी के पाठकों को खुशवंत सिंह के बहुआयामी व्यक्तित्व को जानने के लिए उनके नामी उपन्यास 'दिल्ली' का उषा महाजन द्वारा किया गया अनुवाद जो 1994 में प्रकाशित हुआ था, से खासी मदद मिलती है.

उनके कुछ निष्कर्ष जो मैं समझ सका :

फूल खिलता है तो वह किसी के पास नहीं जाता कि तुम मेरी सुंदरता को देखो, मेरी खुशबू महसूस करो. लोग स्वयं ही फूल की खासियतों की वजह से उसके पास पहुँचते हैं.

अपनी शक्ति पहचानो और ऊर्जावान बनो. लेकिन बनोगे कैसे? क्योंकि हमारी दृष्टि तो केवल दूसरों पर ही बनी रहती है.

अक्सर लोग अपने अंदर के खोखलेपन से भयभीत होकर दोहरेपन का पर्दा लगा लेते हैं. वे चाहते हैं कि हमारे खालीपन को कोई देख न सके और यहीं से शुरू होता है छिपाव का सिलसिला जो ज़िंदगी को नरक में तब्दील होने तक चलता रहता है.

लोग कहते हैं कि उन्होंने अपने समाज, अपने परिवार और अपने बेटों के लिए क्या नहीं किया, लेकिन सभी लोग समय गुजरने के साथ कृतघ्नी हो गए. दगाबाजी याद रखने की वजह से लोग दुखी होते रहते हैं, जबकि हमें लोगों के द्वारा दी गई मदद को याद करके खुश होते रहना चाहिए.

बहरहाल, एक भरे-पूरे इंसान की बातों से दर्जनों सूक्तियाँ निकाली जा सकती हैं.