Wednesday, August 12, 2009

कीमती संदर्भ

पिछले दिनों अथर्ववेद पर प्रख्यात विद्वान करपात्रीजी की टीका पढ़ रहा था। हालाँकि इस टीका में उन्होंने कहीं भी ऐसा दावा नहीं किया है कि अथर्ववेद की उनकी यह मौलिक व्याख्या है। टीका की भूमिका में - कवि न होऊँ, नहिं चतुर कहावउँ - वाली विनम्रता ही उजागर हो पाती है। खैर.

हरेक के भीतरर् कत्ता (करने वाला) और दृष्टा (देखने वाला या तटस्थ या वह जिसे गाँधीजी आत्मा की आवाज़ कहते हैं) का द्वंद्व लगातार चलता रहता है. कुछ तथ्य हैं जिन पर गौर करें :

जीवन में उच्च भौतिक उपलब्धियों को हासिल करने के बाद अचानक व्यर्थताबोध का भाव प्रबल हो उठता है, लगता है कि नाहक ही इसकी खातिर इतना श्रम, इतने संसाधन खर्च किये गये.

दूसरी ओर विकट बुरी दशा में, जब कोई वश नहीं चलता, अचानक से हम शांत हो जाते हैं - सारा विरोध और कुछ कर गुजरने की सारी बेचैनी गायब हो जाती है, कि जैसे हम परिस्थिति के हाथों खुद को छोड़ देते हैं. कुल निष्कर्ष यह कि भीतरी दुनिया में दो का द्वंद्व लगातार जारी है। कभी एक सक्रिय होकर दूसरे पर भारी पड़ता है तो कभी दूसरा पहले पर.

अथर्ववेद का ऋषि कहता है : मैं अमृतमयी वाणी बोलूं, मेरी जिह्वा के अग्रभाग में माधुर्य हो, जिह्वा के मूल में माधुर्य का स्त्रोत हो, मेरे कर्म, बुध्दि, विचार और चित मधुसिक्त हों. यह ऋषि द्वारा माधुर्य प्राप्ति के लिए ईश्वर से की गई प्रार्थना है. माधुर्य ही इस सृष्टि में आनंद लोक के निर्माण में उत्प्रेरक का कार्य कर सकता है. वास्तव में आनंद का उद्गम स्थल तो हमारा हृदय ही है, परंतु जीवन की मधुरता आनंद के इस उद्रेक को बढ़ाती है.

सुख से आगे की स्थिति है आनंद. सुख की सीमाएं हैं, परंतु आनंद किसी सीमा बंधन में नहीं बंधता. आनंद अपार होता है. प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा, सौहार्द और सहिष्णुता आनंद को बढ़ाने वाली प्रवृत्तियां हैं. इसी प्रकारर् ईष्या, द्वेष, घृणा और इनसे उत्पन्न होने वाली उत्तेजना, आवेश और क्रोध हमारे भीतर आनंद के कलश को खाली कर देते हैं.

करपात्री जी आनंद की व्याख्या करते हुए लिखते हैं :

वास्तव में आनंद, जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है.र् ईष्या के दो स्वरूप माने गए हैं. यदिर् ईष्या स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता को जन्म देती है और मानव के उत्थान में सहायक होती है, तो इसेर् ईष्या का सकारात्मक स्वरूप कहा जाएगा. परंतु यदिर् ईष्या दूसरे की उन्नति से हमारे भीतर द्वेष उत्पन्न करती है तो यहर् ईष्या का नकारात्मक स्वरूप कहलाएगा. ईष्या से ही द्वेष की भी उत्पत्ति होती है और द्वेष दूसरे को केवल हानि ही नहीं पहुंचाता बल्कि हमारे आनंद को भी दग्ध करता है. दूसरे को हानि पहुंचाने पर व्यक्ति स्वयं भी मलिनता से ग्रस्त रहता है, ठीक उसी प्रकार जैसे क्रिया की प्रतिक्रिया होना अवश्यंभावी है. दुर्भावनाएं,र् ईष्या और द्वेष की पूरक हैं और हमारे भीतर आवेश और क्रोध का संचार करती हैं. कहा गया है किर् ईष्यालु का अन्त:करण मृतप्राय हो जाता है. आवेश और उत्तेजना, व्यक्ति के अन्तस को अनुभूतियों से रिक्त कर देती हैं और वह व्यक्ति क्रोध और प्रतिशोध को ही जीवन का ध्येय बना लेता है.

Sunday, August 2, 2009

छवि और भय

कह डालने से क्यों डरते हो?
क्यों स्थगित करते हो
आज को कल पर
तब कि जब
माँजते थे रकाबियाँ
गंदे और सड़े होटल में
और देखते थे ख्वाब
कि जब होऊँगा कदवान
कह जाऊँगा सब कुछ...

अब कि जब
परछाईं भी बताती है
पाँच-फुटा तो हो ही
पर अब तुम्हें
कह जाने के लिए
ताड़-सा कद चाहिए...

नहीं-नहीं कद तो बहाना है
असल में तुम कायर हो
और अपनी छवि से भयभीत हो...

अपनी छवि जो बसी है
तुम्हारी अपनी ऑंखों में
कह जाने से वह दरकेगी
वह दरक भी सकती है
इस संभावना मात्र से
तुम काँप उठते हो...

उबरो अपनी छवि के मायावी घेरे से
कल कि जब निश्चित ही
होगा तुम्हारा तिया-पाँचा
क्यों नहीं अपने हाथों
चीर डालते अपना हृदय...

क्यों नहीं फोड़ते वह ठीकरा
जिसमें भरी हैं
सड़कर बजबजातीं
मिठास-भरी पूर्व-स्मृतियाँ...

कि जैसे हगना-मूतना स्वाभाविक है
ठीक वैसे ही
भीतर भरी काली इच्छाएँ
उत्सर्जित होनी चाहिए...

और फिर पूरी संभावना है
कि उस गटर-गंगा में
मिल जाए एकाध मोती
जो किसी के तो क्या
शायद तुम्हारे ही काम आ जाए...

चेतो कि अपनी गढ़ी छवियों से
डरने वाले लोग
निश्चय ही मारे जाएँगे
और जिएँगे वे अनंतकाल तक
जो अपनी छवि को फिर-फिर
तोड़ेंगे और लगातार तोड़ते रहेंगे...