Monday, November 24, 2008

प्रिया! घर आने वाली हैं...

मन से उठी पुकार
प्रिया! घर आने वाली हैं...
घर की थानेदार
प्रिया! घर आने वाली हैं...

कागद-पत्तर करो व्यवस्थित
तकिया चारपाई और बिस्तर
तेल का पीपा धरो यथावत
होओ होशियार
प्रिया! घर आने वाली हैं...

विदा करो ठलुओं को घर से
बरतन-भांडे माँजो फिर से
करो सफाई घर की ऐसी
फैल जाए चमकार
प्रिया! घर आने वाली हैं...

हाथ चूम लेंगी वे आकर
लाड़ जताएँगी मुस्काकर
मन के झाँझ-मजीरे बोलें
खनकेगी खरतार
प्रिया! घर आने वाली हैं...

कानी कौंड़ी साथ न जाना
माया खातिर मन ललचाना
मौत सौतियाडाह करेगी
कर देगी बंटाढार
प्रिया! घर आने वाली हैं...

Wednesday, November 12, 2008

प्रिया! घर आयेंगी...

किये साज-श्रृंगार
प्रिया! घर आयेंगी
मन के खोले द्वार
प्रिया! घर आयेंगी

हृदय-तंतु झनझना उठेंगे
शहनाई की तान सुनेंगे
रोम-रोम पुलकित होगा
खनकेगा तन का तार
प्रिया! घर आयेंगी...

मन मयूर नाचेगा उस क्षण
देहरी लाँघ आओगी जिस क्षण
भर आयेगा कंठ
पुलक जाओगी बारम्बार
प्रिया! घर आयेंगी...

नई-नकोर पायलिया पहने
रुनक-झुनक चलने में खनके
तुम्हें देखकर नयी पड़ोसन
फेंकेगी चुमकार
प्रिया! घर आयेंगी...

सखी-सहेली की कनबतियाँ
याद आयेंगी मन की बतियाँ
उभर आयेगी -
अम्मा-बाबा की फिर-फिर पुचकार
प्रिया! घर आयेंगी...

देस पराये सबको जाना
आपस्वार्थी मन बौराना
मेरा-मेरा चीखे हरदम
कर न पाए उपकार
प्रिया! घर आयेंगी...

Thursday, November 6, 2008

प्रिया तुम पास नहीं हो

फूल आई कचनार
प्रिया तुम पास नहीं हो
रातें हुईं पहार
प्रिय तुम पास नहीं हो

सूख गई मन की चिकनाई
गुजरी रात भोर हो आई
बिसर गई मनुहार
प्रिया तुम पास नहीं हो
लगते घर के कमरे खाली
ज्यों शरबत की चटकी प्याली
सूना सब संसार
प्रिया तुम पास नहीं हो

मेरा हाल हुआ है ऐसे
बिना नमक की दाल हो जैसे
घर में नहीं अचार
प्रिया तुम पास नहीं हो
मुँह उठाए फिरता हूँ ऐसे
बिना धनी की भैंस हो जैसे
पूंछ उठाए - खूंटा तोड़े भरती है हुंकार
प्रिया तुम पास नहीं हो

खा-पीकर फिर मौज मनाई
निंदा-रस की चाट उड़ाई
अपनी खातिर माथा कूटा
पर-स्वारथ को मैल न छूटा
ज़िंदगानी दिन-रात खरचकर
महिने की हुई पगार
प्रिया तुम पास नहीं हो

Friday, September 26, 2008

अमीवा

सजता है उनका दरबार और उसमें होने को शामिल तरसते हैं सब. जैसे तरबूजे को देखकर तरबूजा बदलता है रंग, वैसे ही उनकी नज़रें-इनायतों की खातिर सभी लगे हैं अपना काया-कल्प करने में. वे कहते हैं हाँ तो सामूहिक स्वर हामी भरता है. उनकी ना को सभी अनुनासिक होकर स्वीकारते हैं. तिस पर मज़ा यह कि वे अपनी इस भेड़ियाधसान फौज को अच्छी तरह पहचानते हैं.

कभी जब होते हैं वे नाखुश तो कुछ के चेहरे गमगीन और कुछ भीतर से आनंदित होते हैं. होती है किसी की तारीफ तो सभी डेढ़ इंच की मुस्कान लिये इसे प्रत्यक्ष-परोक्ष में अपनी हौसला अफजाई मानते हैं. दंत निपोरी की सभी धारायें प्राय: सभी को कंठस्थ हैं. पेंच की बातें वे अवसर जानकर और चासनी में लपेटकर प्रस्तुत करते हैं. मुँहदेखी पंचायत और ठकुर-सुहाती की परम्परा वहाँ अब बचपने से निकलकर यौवनावस्था को प्राप्त हो रही है.

वे कुछ बाँच रहे हैं, सभी उनके मुख को जाँच रहे हैं. उनके मुख से शब्द निकले नहीं कि बाकी उसे झेल लेते हैं. 'जी सर', 'ठीक है', 'अच्छी बात है', 'बेहतर है', 'हो जायेगा', 'देख लूँगा', 'मैं करता हूँ', 'करवाता हूँ' जैसे वाक्य वहाँ की दीवारों पर लिखे हुए हैं, जिन्हें सिर्फ बाकी के पढ़ पाते हैं. दरबारी पढ़ इसलिए पाते हैं, क्योंकि वे इन्हें सुनना चाहते हैं. 'ना न निकले' की ध्वनि वहाँ की हवा की शीतलता में घुलकर एकामेक हो गयी है और बाकियों पर उसका नींमअसर बराबर बना रहता है. 'हें-हें' का पहला दौर उपदेशात्मक होता है और बाकी वात्सल्यभाव से 'हें-हें' करते हैं. इस दौर का अंत चाय रूपी चरणामृत बंटन से होता है. जिन्हें चरणामृत मिला वे तृप्त और जिन्हें नहीं मिला वेर् ईष्या से लहालोट होते हैं.

वे जब मज़े के मूड़ में होते हैं तो मर्जी को उजागर नहीं करते. बाकी के तब उनकी छाप-तिलक टटोलने लगते हैं. उनकी मर्जी अन्धों का हाथी हो जाया करती है और वे मज़े-से उसकी सवारी गाँठते हैं. उनके कक्ष की फिजा समतामूलक है और समानता का छल-छन्द वहाँ अपने आप महसूसने लगता है. उनके मुख से निकले वाक्य वहाँ का संविधान हो जाता है.

चायरूपी चरणामृत पीकर जब मैं वहाँ से निकला लगा अमीवा में बदल गया हूँ.

रुटीन

हरेक अपने रुटीन का आदी होता है. यह बदलते ही छटपटाहट होती है. एक रुटीन के छूटते ही दूसरे को जमाने का प्रयास शुरू हो जाता है. लगातार एक जैसे काम नीरसता पैदा करते हैं और जोश में उन्हें बदलने की झोंक उठती है.

एक बार जंगल में जानवरों की सभा हुई. सभी ने तय किया कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिध्द अधिकार है सो हमारे भाईबंद जो आदमियों द्वारा बंधक बनाये या पाले गए हैं, उन्हें छुड़ाना चाहिए. क्राँति के सूत्रपात के तहत एक-एक करके सभी पालतू जानवरों को छुड़ाने का उपक्रम आरंभ हुआ. अंत में तेली के यहाँ कोल्हू के बैल के पास पहुँचे और उसे स्वतंत्रता के गीत सुनाये गए. कहा गया कि स्वतंत्रता हर जीव का जन्मसिध्द अधिकार है. बैल औंचक देखता रहा और बोला- इससे क्या फायदा होगा? सब बोले- तुम आजाद हो जाओगे. अपनी मर्जी से घूम फिर सकोगे और अपनी मर्जी से खा-पी सकोगे. बैल को बात कुछ समझ नहीं आई, लेकिन सभी का आग्रह था सो वह भी स्वतंत्र होकर जंगल में पहुँच गया. यहाँ उसके साथ सब कुछ नया और रोमांचक था. चारों ओर हरी-भरी घास थी. पीने को झरनों का स्वच्छ पानी था. आराम करने को पेड़ों की छाँव थी. खाओ-पिओ और आराम करो. उसने भरपेट खाया और आराम करते खाए हुए को पगुराया. एक झपकी भी ली.
और इस तरह कई दिन गुजर गए. खा लिए, पी लिए और मौज उड़ा ली, लेकिन जल्दी ही लीक पर चलने का सनातन अभ्यास जोर मारने लगा और बिना काम के वह बोर होने लगा. अब क्या करूँ नामक सवाल उसके दिमाग में बार-बार खड़ा हो रहा था. जंगल में बैल को करने लायक कुछ था भी नहीं. ज्यों-ज्यों वह दिमाग पर जोर डाले उसकी बेचैनी बढ़ने लगती. वह सोचने लगा और निष्कर्ष निकाला कि स्वतंत्रता का क्या यही मतलब है. अगर यह ऐसी ही है तो यह बड़ी कठिन है. खा-पीकर आराम करो और करने को कुछ नहीं. कितने दिनों तक यह सब चलता रहेगा. बैल से यह नयी स्वतंत्रता हजम नहीं हुई और वह बेचैनी में पड़ गया और अंतत: एक दिन सुबह तेली के दरवाजे पर खड़ा हो गया.

तेली ने बैल को देखा तो बोला- क्यों भई, क्या हुआ तुम्हारी स्वतंत्रता का. बैल मुँह लटकाए रहा और कोल्हू के पास जाकर खड़ा हो गया. तेली ने उसे फिर छेड़ा- बोलो भाई अपनी स्वतंत्रता के बारे में. बैल मरी आवाज में बोला- खाया-पिया और आराम किया. पर वहाँ करने को कुछ था नहीं सो ऐसी स्वतंत्रता किस काम की. मुझे बड़ी बेचैनी हो रही थी. लगा इससे अच्छा तो अपना पुराना काम ही था. खाने-पीने को कम मिलता था. डाँट अलग पड़ती थी, लेकिन रोजनदारी का काम तय था. दिमाग पर कोई जोर नहीं डालना पड़ता था. वहाँ तो दिमाग पर भारी जोर डाला पर करने लायक कुछ सूझा ही नहीं सो वापस आ गया.

Sunday, September 21, 2008

बड़ा आदमी : एक खुशफहमी

प्रसिध्द फिल्मी डॉयलाग है- 'एक दिन में बड़ा आदमी बनूँगा'. जबकि असल ज़िंदगी में बहुत कम लोग इसे इस तरह और इन शब्दों में कहते हैं. यही कारण है कि अधिसंख्य लोग आम आदमी हैं. हालाँकि आम आदमी होना कोई बुराई नहीं है और ना ही बड़ा आदमी बनना कोई महान उपलब्धि. यह सिर्फ नजरिए का फर्क है जो इंसान को छोटा या बड़ा बनाता है. आप बदतर स्थितियों में बड़प्पन दिखा सकते हैं, जबकि सुख-सुविधा सम्पन्न वर्ग ओछी हरकतों के लिए कुख्यात हैं. बड़े आदमी होने की घटना बाहरी नहीं आंतरिक है. जैसे ही आप इस सपने को स्वीकार करते हैं - एक क्रांति-सी हो जाती है. चीजों के प्रति आपका नजरिया बदलने लगता है. समय का हरेक पल आपको कीमती महसूस होने लगता है.

अक्सर बड़ा आदमी होने से आशय आर्थिक तौर पर सुदृढ़ स्थिति वाले आदमी के तौर पर समझा जाता है. पद, पैसा और नाम वाले आदमी को भी बड़ा आदमी कहा जाता है. बड़े आदमी की यह बाहरी छवि है और प्राय: हरेक इसे हासिल करने के बारे में एक न एक बार सोचता जरूर है. आखिर सुख-सुविधाएं किसे बुरी लगती हैं. हरेक चाहता है - बंगला हो, गाड़ी हो, अर्दली हों, खरचने को पैसा हो, चार लोगों में नाम हो, अच्छे मददगार हों, सुंदर कपड़े हों. बड़े आदमी का बाहरी स्वरूप हरेक पाना चाहता है. कितने पा पाते हैं या पाने की दिशा में सोचकर रुक जाते हैं, यह दूसरी बात है.

स्थिर और जड़ समाज में यही बड़ी घटना समझी जाएगी कि लोग बड़े आदमी बनने की दिशा में सोचते तो हैं. सोचा हुआ ही किसी दिन व्यवहार में बदल जाता है. इच्छाशक्ति दृढ़ता प्रदान करती है. लगन भी उसी से उपजती है. जब एक बार किसी चीज की लगन लग जाती है तो उसे आदमी पाकर ही दम लेता है. इस हिसाब से बड़ा आदमी बनना बड़ा आसान काम है. सिर्फ लगन लगाने की जरूरत है और लगन बेचारी आसानी से लगती नहीं. अगर वह लग गई तो कभी न कभी इंसान बड़ा आदमी बन ही जाएगा. लगन ही उसे रास्ता सुझाएगी और वही रास्तों के काँटों को झेलने की ताकत भी पैदा करेगी. तब हँसते-हँसते इंसान सब मुश्किलों को स्वीकार करता जाता है और अंत में बड़ा आदमी बन जाता है.

Monday, September 15, 2008

सनातन भाष्य

ओ वाक्
दुनियावी सच और
इंसानी फितरतों की
साक्षी हो तुम.

मर्मांतक सच है यह
शरीर का तुम
आधा हिस्सा हो
प्रेरणा देती हो
पौरुष जागता है
तुम्हारे ही दर्प से
हिंस्र-पशु का उफनता है अहंकार
और अंतत: मिट्टी में मिलता है.

ओ देवी!
प्रलय का कापालिक
क्योंकर जगाती हो
अबूझ है यह पहेली
परत-दर-परत का मर्म
भीषण-घृणा और
पतंगे-सी प्रीति
क्योंकर महसूसता है
आधा शरीर.

भावनाओं का आवेग
हर बार तुम्हें रौंदता है
कभी प्यार-पगे शब्दों से
तो कभी कायान्तरण करके.

चंद्रमा की गतियों की मानिंद
बदलती है तुम्हारी धज
रात के सन्नाटे में और
ऍंधेरे में
दायें हाथ को बायाँ
अजनबी क्यों लगता है
स्तम्भन की कमतरी
पहले दिमाग में उतरती है
और आखिर में
नसों पर थिर
हो जाती है.

तुम बिफरती हो
करती हो घृणा
पर सावधान इतनी कि
उजागर नहीं होता कुछ
जैसे वमन की जुगुप्सा
किसी को भी
विचलित कर सकती है
ठीक वैसे ही तुम
भीतर से विचलित होती हो.

तुम अमरबेल-सी
रोज-रोज बढ़ती हो
और
छा जाती हो
वामन-विराट पर
कभी न कभी
तुम्हारी सर्वभच्क्ष इच्छा
प्रकट हो ही जाती है
और प्रकृति के प्रकोप
की माफिक
हिला देती हो
अवलम्बन को.

चराचर जगत की
स्वामिनी तुम
समर्पण करके ही
जीतता है पुरुष
पीता है मधु
चखता है मद
और पुन:
सृजन का चक्र
अवस्थित होता है
मूलाधार में.

Thursday, September 11, 2008

एक परीक्षा

वे जब कर रहे थे
तैयारी
एक परीक्षा देने की
सैकड़ों अनजान थे
ऐसी किसी परीक्षा की बाबत
जो बदल देती है
नज़रिया ज़िंदगी का.

ऑंखें तो वे ही होतीं
पर दृश्य के मायने
बदल जाते हैं
कान तो वैसे ही
सुनते हैं
पर अहसास
जुदा होता है

इक तंग घेरे से
बड़े घेरे में
धकेल देती है
एक परीक्षा

उनका उठना-बैठना
बोल-बरताव
क्या-कुछ नहीं
बदल जाता
ऑंखोंभर दृश्य
और
कानोंभर शब्द
अलहदा असर करते हैं

वे हो जाते हैं खास
और बाकी
आम रह जाते हैं.

Wednesday, September 3, 2008

नये जमाने की लड़की

पनीली ऑंखों में
गुजरा जमाना
अब भी कायम है
कुछ भूमिकाएँ भर बदलीं हैं
बाकी दुनिया यथावत है
पहले उसकी जरूरतें
कोई और पूरी करता था
अब कोई और करता है.

कीमत की उसे नहीं फिकर
कमतरी से है नफरत
नायाब से नायाबपना
उसे हमेशा ललचाता है.

एक दिन उसने पूछा--
पत्तियों के पीलेपन और
बालों के क्लिप के नीलेपन में
क्या संबंध हो सकता है
मैं नहीं समझ पाता
क्या बोलूँ.

हमने कहा--
तुम रूठ तो जाओ ज़रा
बला टले
मगर वह नहीं रूठी और टली भी नहीं
बोली-
उसे तो चाँद चाहिए
कहीं से भी लाकर दो
कैसे भी खरीदकर लाओ
किसी भी कीमत पर
कुछ न बचा हो तो
खुद को बेच आओ
मगर
चाँद लाओ.

मैंने पूछा--
मेरे बगैर करोगी क्या चाँद का
उसने कहा--
पहले लाओ तो
बाद में सोचेंगे.

वह पगली
नहीं जानती
इंसान का मैं-पना ही
उसकी ताकत है
जब वही झर जायेगा
चीज़ों के मायने बदल जायेंगे.

Wednesday, August 20, 2008

दो पहलू

घर पहुँचते ही उसकी
शुरू होती है - राम कहानी
वही-वही बातें - वे ही दिक्कतें
आखिर एक जैसे शब्द सुनकर
कान भी तो पक ही जाते हैं.

पूछा मैंने- आज क्या हुआ?
बोली वह- कोहनी में दर्द है
सुनता हूँ और 'हूँ' भर कहता हूँ
मन उसके मर्ज गिनता है
कि गिनती दहाई तक पहुँच गई
और मर्ज खत्म नहीं होते.

करती है वह सवाल
बोलती है वह - सुनता हूँ मैं
दुनिया के सारे मर्ज
मुझे ही क्यों हैं?
मैं क्या जबाव दूँ
गिनवाती है वह तकलीफें
कमर में दर्द है
माथे में पीड़ा है
कंधों में टीस है
चेहरे पर झाइयाँ हैं
ऑंखों के नीचे काले गड्ढ़े हैं
बाल झड़ रहे हैं
देर तक सुनता हूँ मैं
कहता हूँ- ह्यूमोग्लोबिन कम हो रहा है
खाली नज़रों से देखती है वह मेरा चेहरा
बस!
इतनी लम्बी गिनती का
इतना-सा उत्तर.

वह बात बदलती है
कहती है-
पड़ौसन छरहरी हो रही है
इन दिनों
पता नहीं क्या खाती है
गाँव की गँवार
शहर की मेम
हुई जा रही है.

कहना चाहता हूँ
पर कहता नहीं
कि पड़ौसन
अपने में खोई रहती है
बच्चे उसके खेलते हैं
घर में किटी-पार्टी है
बच्चा बीमार है
वह पड़ौस में बैठी है
बच्चे का होम-वर्क नहीं हुआ
वह फेसियल कर रही है
बच्चा भूखा सो गया
वह नेल पॉलिस लगा रही है
पति बासे ब्रेड खा रहा है
वह फोन पर बतिया रही है
किससे? - पता नहीं
और इस तरह
वह खिली-खिली रहती है
और तुम
अपने को खरच रही हो
आहिस्ता-आहिस्ता
बच्चों पर
पति पर
घर-परिवार पर
सफाई पर
साज-सम्हाल पर
रिश्तेदारों पर
और उस पर
जो नहीं है हाथ में
और जो हाथ में है
वह खास नहीं.

कल जो आने वाला है
खो जाती हो उसमें
आज जो गुजर रहा है
वह ओझल है नज़रों से
मैं क्या कहूँ - बोलूँ?
सो 'हूँ' कहकर
चुप हो जाता हूँ.

Monday, July 28, 2008

प्यार की खातिर

गुजर गए दिन

राजा और रंक में जो भेद होता है, वही उसमें और मुझमें था। मैं सपने देखता था और जाहिर है कि सपने देखने पर कोई पाबंदी न उस समय थी, न आज है। उसका भाई मेरा दोस्त था। दसियों बार मैंने उसके भाई से अपनी मन की बात कही थी। कहा था कि चार पैसे कमाने की लियाकत अगर मैंने पायी तो तुम्हारी बहन का हाथ मागूंगा, तब तुम मना नहीं करना। उसने कहा एीक है पहले कुछ बन तो जाओ। समय बदला और मेरी रोजी-रोटी की जुगाड़ जम गयी। मैंने उसके भाई को उसका वादा याद दिलाया। भाई ने पहले हां की, फिर अगले ही दिन बदल गया। मेरे दिल पर चोट लगी। मैंने बहुत चिरौरी की। कहा की ऐसा न करो। यह जो मैं आज हूं वह तुम्हारी बहन के प्रेम में पड़कर ही बना हूं। मेरी पूरी उपलब्धि तुम्हारी बहन की अमानत है। अगर तुम्हारी बहन मुझे स्वीकार नहीं करती तो मैं इस उपलब्धि को लिये-लिये कहां फिरूंगा। जैसा कि जालिम जमाना करता है, वही उसके भाई ने किया। वह नहीं माना और अपने वादे से मुकर गया। मैं रोया, मेरा दिल रोया और वक्त ने घाव भरने शुरू कर दिये।

वक्त की करवट

इतने लम्बे अरसे के बाद आज उसका फोन आया। वह मुझसे मिलना चाहता था। मैंने कहा किसलिये। वह बोला कुछ बात करना चाहता हूं। मैंने कहा आ जाओ। हमने मिलकर बातें की। बैएकर दारू पी। मुझे उसको दारू पिलाना अच्छा लग रहा था। अच्छा इसलिए क्योंकि वह परेशान था। फटेहाल था। बेरोजगार था। उसकी बातों में उसका पुराना दम्भ गलकर बह रहा था। मैंने उसे और दारू पिलायी। वह रोने लगा। बोला तुम मेरे लिये कुछ करो। हजार-दो हजार की नौकरी की जुगाड़ ही करा दो। उसकी आंखों में तैरती बेचारगी देखकर मुझे भीतर तक संतोष हुआ। मैंने कहा कि देखो यार तुम्हारी बहन के लिए अब भी मेरे दिल में कोमल भावनाएँ हैं। उन भावनाओं को आज मैं किस रूप में देखूं यह स्पष्ट नहीं है। क्योंकि वह भी शादीशुदा है और मेरा भी परिवार है। उन्हीं पुरानी मीएी भावनाओं को ध्यान में रख मैं तुम्हारे लिये जो बन पड़ेगा वह करूंगा। मेरा इतना कहना था कि वह लगभग रोते हुए मुझसे लिपटने लगा और बोला कि बिलकुल एीक कहते हो। मैं यही सोचकर तुम्हारे पास आया था कि तुम्ही मेरी बहन से सच्चा प्यार करते थे। उस सच्चे प्यार की खातिर मेरी मदद तुम जरूर ही करोगे और देखो मेरा सोचना कितना एीक निकला। आखिर तुम मेरी मदद करने के लिए मान ही गये।

देना पड़ेगा

स्टेशन पर उसे छोड़कर मैं वापस लौटा। मन में उसके लिए गालियां उमड़ रही हैं। स्वार्थी, कमीना। दूसरे क्षण उसकी बहन का कोमल चेहरा मेरी आंखों में उतर आया है। आज मेरी जो भी औकात है, वह उसके बाप के सामने प्रस्तुत करने के लिए ही मैंने कमाई थी। औकात की इस कमाई को मैं उसके सामने तो प्रस्तुत नहीं कर सका, लेकिन इस कमीने को मैं अपने व्यक्तित्व की एक फूटी कौड़ी भी देने को तैयार नहीं हूं। मेरी आंखों में उसकी बहन के कोमल चेहरे में याचना उभरती है। गाली देती हुई मेरी जीभ लड़खड़ाने लगती है। मैं कमजोर पड़ने लगता हूं। वह व्यक्तित्व जो मैंने उसकी बहन के लिए कमाया था, उसका भाई उसमें से कुछ हिस्सा मांगने आया था। शायद मुझे कुछ भुगतान करना पड़ेगा। मेरे दिल की कोमल भावनाओं के खातिर शायद मुझे उसकी कुछ मदद करनी पड़ेगी।

Monday, July 21, 2008

बढ़ती उमर और बचपन की यादें

उमर बढ़ने के साथ बचपने की स्मृतियाँ मोहक, सपने-जैसी और अच्छी लगने लगतीं हैं. बचपन तो दोबारा लौटता नहीं लिहाजा उन स्मृतियों को आदमी खुली ऑंखों के सपने के तौर पर देखता है.

खाँच, नदी, महुए और भाई
खाँच (खेत) की बिरोल के एक तरफ हम चारों भाई गङ्ढे खोद रहे हैं. मैं सबसे बड़ा हूँ. सबसे छोटा मुझसे दस साल छोटा है. वह हमें काम करते देख रहा है, बल्कि निगरानी कर रहा है कि काम अच्छे-से हो रहा है या नहीं. बिरोल के दोनों तरफ पौधे रोपे जायेंगे, इसलिए हम गङ्ढे खोद रहे हैं. पौधे रोप कर हम प्रकृति का ऋण चुका सकते हैं, इसलिए हरेक इंसान को जीवन में कम से कम एक पौधा रोपना चाहिए, ऐसा पिताजी का कहना था. पिताजी के इस कहे को हमें मानना ही था. हमने ज्यों ही उसे माना, यह बात सच लगने लगी. गङ्ढे खोदते हुए पौधों का पेड़ बनना हम महसूस कर रहे थे. बच्चे होने के बड़े फायदे हैं. आप शुरूआत करते हुए उसका मध्य और अन्त आराम से महसूस कर सकते हैं.
कुएँ पर रखा बिजली का पम्प तेजी से चल रहा है. बिरोल में पानी का बहाव इतना तेज़ है कि वह दोनों तरफ उबल रहा है. सुबह का सूरज अभी थोड़ी ऊँचाई पर ही पहुँचा है. खेतों में आधा हाथ खड़ी फसल पर ओंस की बूँदें साफ चमक रही हैं. हल्की धुँध की परत खेतों पर सफेद चादर-सी बिछी दिखती है. हवा की नमी शरीर में फुरफुरी पैदा कर रही है, लेकिन हमारे शरीर पर केवल लंगोट कसे हुए हैं. तेल मालिश के कारण हमारे शरीर चमक रहे हैं. गङ्ढों से मिट्टी निकालने के कारण हमारे माथों पर पसीना छलक आया है. कुदाली से हम खोदते हैं और फावड़े से मिट्टी को गङ्ढे के चारों तरफ फैलाते जाते हैं.
काम करते हुए हमारी ऑंखों में परिणाम के सपने तैर रहे हैं और इस वज़ह से हमारी गति सामान्य से ज्यादा है. हम जैसे उमंग की लहर पर सवार हैं. हम अभी गङ्ढे ही खोद रहे हैं, लेकिन हमें महसूस होता है कि इन गङ्ढों में बड़े और हरे-भरे पेड़ खड़े हैं. इन पेड़ों की घनी छाया हमें गरमाहट का अहसास कराती है, मानो शीत-लहर से पेड़ हमारी रक्षा कर रहे हैं. एीक वैसे ही जैसे तपती धूप में पेड़ों की छाया हमें एण्डक देती है. हम अभी बच्चे ही हैं. जल्दी ही जोश में आ जाते हैं. शरीर हमारे ज़रूर छोटे हैं, लेकिन जैसे ऑंखों में पूरा आसमान समा जाता है वैसे ही हमारे कोमल मन में भविष्य की इन्द्रधनुषी कल्पनाएँ आकार लेने लगती हैं.
हमें अपने खेतों से मोह है. खेत के बगल में बहने वाली छोटी-सी नदी हमें प्यारी और रिश्तेदारी महसूस करवाती है. खाँच के महुए के पेड़ हमें गए-गुजरे बुजुर्गों जैसे लगते हैं. महुए के पेड़ों के नामों तक में प्यार छुपा है- मिएवा, गुल्ला, टेड़ा. हमने सालों महुए चखे और बीने हैं, गुलेंदे बीने हैं और उनसे निकली गुली से कंचों वाला खेल खेला है.

पाठशाला और हमारे हीरो हमारे पिता
पाठशाला (एक और खेत) के पुराने, घने आम पर चढ़कर हम सभी मानो पक्षियों में बदल जाते हैं. आम की ऊँची डालों पर चढ़कर हम, यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ की कल्पना करने लगते. आम की नीची डालों पर छुपन-छुपा खेलते घण्टों गुजार देते. बेरियों के बेर बीनते हुए आपस में संस्कृत के श्लोकों को दोहराते. बेरियों के नाम हमने उनकी मिठास, खटास और तीखेपन के हिसाब से रखे हुए थे.
पाठशाला पर अमरूद के गिने-चुने दो पेड़ थे. एक था सफेदा, जिसका गूदा सफेद और बेहद मीठा होता था. इस पेड़ में हर साल फल नहीं लगते थे. लेकिन जब भी लगते टूट कर लगते. दूसरा अमरूद का पेड़ सदाबहार था. सदाबहार इन अर्थों में कि उसमें तकरीबन साल भर छोटे-बड़े अमरूद लगे दिखायी देते रहते थे. यह औसत दर्जे का अमरूद था. पाएशाला पर एक नींबू का झाड़ भी था. रहट वाले कुएँ के पास. इस झाड़ के नींबू शायद ही हमारे हाथ कभी आए हों.
पाठशाला पर एक छोटा मगर कलमी आम का नया-नया पेड़ था. हमारे दिनों में यह गुल्ला कहलाता था. इसमें फल आना अभी शुरू नहीं हुए थे. आम के इस पौधे को लगाने का दावा दो लोग करते थे. दावा एोंकने वाला एक तो दाऊ था. दूसरे सीताराम भाई साहब भी यह कहते सुने गए कि गुल्ला उन्होंने लगाया है.
पाठशाला में सागौन के पेड़ों का छोटा-सा बारोंदा था. एक बार हमारे पिता ने सागौन के इन पेड़ों को गिनकर, उन पर नम्बर डालने का काम मुझे सौंपा था. नम्बर तो खैर मैं नहीं डाल पाया लेकिन इन पेड़ों की गिनती मैंने जरूर की थी. छोटे-बड़े कुल मिलाकर यह तीस से चालीस पेड़ थे.
पाठशाला तब हमारी थी. हमारी यानी हम सब की. हम सब की माने हमारे दादाजी की, जिन्होंने इसे बनाया. हमारे पिताजी सहित उनके तीनों भाईयों की. हमारे ताऊ-चाचा के लड़कों और हम चारों भाईयों की. ऐसी हमारी पाएशाला में एक तेंदू का पेड़ भी था जो बहुत ऊँचा और बहुत कम फल देने वाला था, लेकिन उसके फल बहुत मीठे थे.
पाठशाला में अंग्रेजी इमली के भी दो-चार पेड़ थे. हमें नहीं पता कि उनको किस ने लगाया. अलबत्ता सीताफल के ढेरों पेड़ पाठशाला में यहां-वहां मौजूद थे. पाएशाल में पीपल के दो बड़े पेड़ और नीम के दर्जनों पेड़ मौजूद थे.
असल में हमारे पिता पेड़ों को बहुत प्यार करते हैं और सच तो यह है कि वे प्रकृति-मात्र को ही प्यार करते हैं. जब हमारे परिवार में बंटवारा होने वाला था तो हमारे एक रिश्तेदार ने पाएशाला के इन पेड़ों को कटवाकर मोटी रकम बनाने का सुझाव दिया. उनके विचारों को सुनकर पिताजी उदास हो गये. वे बोले- अपने हाथ-पांव भी भला कोई काटकर बेचता है?
पिताजी हमारी दैनंदिन गतिविधियों में तक आदर्शवादी हैं. वे हमें श्रम की महत्ता लगातार बताते रहते हैं. बराबरी का संस्कार हमें उठते-बैठते सिखाया गया. बड़े-छोटे की व्यर्थता और सह-अस्तित्व की व्यापकता हमें घोलकर पिलायी गयी.
पिताजी सिर्फ हमारे पिता ही नहीं, वे हमारे हीरो भी हैं. हम उन जैसा होना चाहते हैं. उनके बताए कामों पर हम लगन से जुट जाते हैं. हम सभी में यह होड़ है कि काम को पहले कौन पूरा करता है और शाबासी का हकदार बनता है. लेकिन पिता हमारे अबूझ किस्म के हैं. वे शाबासी भी बहुत गम्भीर किस्म की देते हैं. उनकी शाबासी भी आदर्शतम किस्म की होती है. जीवन जीने के श्रेष्ए मापदण्ड वह हमारे व्यवहार में देखना चाहते हैं. उनके विचारों में मानवीय दुर्बलता दिखायी नहीं देती. वे हमें सहज और दृढ़ इंसान बनाना चाहते हैं.
पिताजी हममें काम को बेहतर से बेहतर करने का उत्साह भरते हैं. वे हमें प्राणी-मात्र से, सम्पूर्ण प्रकृति से प्रेम करना सिखाते हैं. चींटी को मारने से भी पाप लगता है, ऐसे विचारों के बीज उन्होंने हमारे कोमल मनों में बहुत धीरज और जतन से बोए हैं. उन्होंने हमें हर काम को सहजता और खेल-खेल में करना सिखाया है। हमें पता ही नहीं चला कि कब खेलते हुए हम पढ़ने लगते और कब पढ़ते हुए हम खेलने लगते. उन्होंने हमें निर्भय रहना सिखाया है, क्योंकि उन्होंने हमें गलत कामों से डरना सिखाया है. उन्होंने हमें हमेशा अपने में गलती खोजने की सीख दी है, क्योंकि उनका मानना है कि मनुष्य की सारी तरक्की का इतिहास गलतियों के पन्नों पर लिखा गया है.

हम भी पिता हैं
हम भी पिता बन गए हैं. पर एक सवाल है जो लगातार हमारा पीछा कर रहा है कि क्या हम आदर्श पिता हैं? क्या हमारे अपने बच्चों की नजर में हम हीरो जैसे हैं. क्या हमारे बच्चे भी हमें उस सम्मान की नज़र से देखेंगे, जैसे कि हम अपने पिता को देखते हैं?
प्रश्न है कि हम उन्हें क्या सिखा रहे हैं? उन्हें क्या दे रहे हैं? देने को हमारे पास बहुत कुछ है सिवाय समय के. जिस समय-समाज में हम हैं उसके लिहाज़ से बच्चों की सारी ज़रूरतों को हमने पूरा किया है. अच्छा खाना, अच्छे कपड़े, अच्छा घर, अच्छी सुविधाएँ, लेकिन क्या एक पिता की हैसियत से बच्चों के लिए इतना सब करना ही पर्याप्त है? वह नैतिक साहस और संस्कार जो मैंने अपने पिता में देखा और सहज ही पाया है, अपने बच्चों को वैसे संस्कार क्या मैं दे पा रहा हूँ?

कुनेन जैसे सच
गलत को गलत कहने और स्वीकारने का साहस, अपनी गलतियाँ खोजकर उन्हें सुधारने और दूसरों को बताने का साहस, पैसे की सुचिता यानी ईमानदार तरीकों से कमाये गये धन की महत्ता, भौतिक सुख-सुविधाओं की ओर कभी न समाप्त होने वाली लार-टपकाऊ लिप्सा से वितृष्णा. जिसे आज की दुनिया में बहुत व्यवहारिक होना कहते हैं, उस शातिर दोगलेपन से बचाव.

उपसंहार
ऐसा कहा गया है कि अनुभव पर आशा की विजय होती है.

Sunday, July 20, 2008

दिसंबर १९८४ की एक रात

चाँदी जैसे उज्जवल मुख की
सुन्दरी मुझे सहलाती है
घुँघराले काले बाहों से
वह रोज मुझे बहलाती है
आकाश से लम्बी आशाएँ
वह रोज मुझे दे जाती है
तन की - मन की - यौवन-धन की
वह रोज झलक दिखलाती है
बस इच्छा इतनी होती है
थोड़ा-सा उसे छूकर देखूं
अफसोस तो बस इस बात का है
वह रोज स्वप्न में आती है.

Saturday, July 19, 2008

घर का जोगी

अभी हम लोग 'लरका-बिटियाँ' वाली उमर में ही थे और जोशी कक्का हमें बूढ़े-पुराने लगते। कक्का को रामायण कंठस्थ थी और 'बदोबास' याने राम का वनगमन प्रसंग अत्यधिक प्रिय था। जब वे इसे सस्वर गाते तो ऑंसू उनकी ऑंखों से झरने लगते। हमें यह समझ नहीं आता कि एक तरफ तो कक्का कहते हैं कि हमें राम की तरह आज्ञाकारी होना चाहिए और वही राम जब पिता के आदेश का पालन करते हुए वनगमन करते हैं तो कक्का धार-धार क्यों रोते हैं।
कक्का की आवाज़ पतली है। उनकी चाल भी नाजुक है। मसखरी करने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि कक्का घर में काम करते हुए तौलिया सिर पर डाल लेते हैं, बिलकुल काकी की तरह।
हमारे यहाँ मंदिर था। अब भी है। शाम की पूजा-आरती में कक्का नियमित आते थे। आरती के बाद जै बोलने में कक्का सबसे आगे रहते।
श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन... की स्तुति प्रारंभ करते ही कक्का मगन हो जाते। हमें आज तक समझ नहीं आया कि मंदिर में मूरत कुंजबिहारी यानी राधा-कृष्ण की है और स्तुति रामचन्द्रजी की गायी जा रही है।
कक्का का पूरा नाम नारायणदास जोशी था, लेकिन वे जगत कक्का थे। जैसे जिज्जी, फुआ, मौसी, काकी, मामी संबोधन व्यक्तिगत और चारित्रिक गुणों की वजह से मिल जाते हैं- सभी उन्हें कक्का ही कहते।
वे शनीचरी माँगते, मूल पूजते। मूल नक्षत्र में पैदा हुए बच्चों पर से मूल उतारने की पूजा। हमारे मोहल्ले में भी वे आते, लेकिन हमारे घर से वे शनीचरी नहीं लेते। हमारा घर देवस्थान के साथ ही उनका गुरु स्थान भी था, सो उसका दान वे कैसे स्वीकार कर सकते हैं- यह तर्क था उनका।
हमारे पी.टी.आई. मास्साब जो हमें ऍंगरेजी भी पढ़ाते और अशोकवारी बखरी की अटारी में रहते थे, कक्का के संदर्भ में सहज ही कहा करते कि शनीचरी माँगना भी एक तरह से भीख माँगना है। लेकिन शनीचरी माँगना भीख माँगना नहीं है। राम-राम की सुरीली टेर लगाते कक्का ज्यों ही किसी दरवाजे पर रुकते, अगले घर की महिलाएँ भी शनीचरी देने के लिए सामान उठाने लगतीं। शनिवार को दिया जाने वाला दान यानी मीठा तेल, आटा, दाल और खड़े नमक की दो डिगरियाँ। कक्का के कँधे पर कई झोलियाँ होतीं, जिनमें वे सीदे के सामान को अलग-अलग रखते। तेल के लिए पीतल की बाल्टी होती। कक्का अपने मुँह से कभी कुछ नहीं माँगते। वे तो बस राम-राम की टेर लगाते। कई बार वे मोहल्ले के किसी पेड़ के नीचे बैठ जाते और कई घरों से महिलाएँ आकर उन्हें शनीचरी देती जातीं। इसी के साथ दुनिया जहान की बातें भी चलती रहतीं। तीज-त्यौहार, अवसर-काज, पूने-अमावस, महूरत-ग्रह-दशा संबंधी दसियों सवाल के जवाब कक्का सहजता से देते रहते। कक्का से सभी घरोबा मानते। उनके सामने अपनी निजी समस्याओं को भी रखते। 'कक्का लरका बिगर गओ है - बात नईं सुनत', 'मोड़ी के लाने कुंडली नहीं मिल रई', 'बाहर गाँव जाने है - मुहूरत कैसो है', जैसी समस्याओं के कक्का सहज भाव से जवाब देते। 'रामजी सब ठीक करिहैं', कक्का की रामबाण दवा है जो अचूक भी है और असरकारी भी।
कक्का बड़े आस्थावान हैं। दुनिया जैसी भी है उसमें उनकी बड़ा आस्था है। निहायत शुक्रियानी अदा से वे कहते- 'बड़े भाग मानुष तन पावा।' उनकी दार्शनिकता गहरी है कि नहीं, लेकिन महिलाओं को उस पर गहरा भरोसा होता, हाथ से काम और मुँह से राम वाली पध्दति का प्रचार कक्का की अनोखी शैली है। 'जाही विधि राखे राम - ताही विधि रहिए' उनका जीवन सार है। वे हर हाल में निश्ंचित रह लेते हैं। वे कहते 'कछु लेके तो जाने नइयाँ, इतई धरो रह जाने सब'।
'एक घड़ी, आधी घड़ी, आधी में पुनि आधि, तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध।' साधु की संगत पाने के लिए कक्का की हुलास कभी खत्म नहीं होती। गाँव में कहीं भी कथा-सत्संग हो कक्का स्थाई श्रोता हैं। वे पहले पहुँचते और आखिर में जाते। 'राम रस बरसन लगो गलियन में' बरसते हुए राम रस को कक्का तल्लीनता से समेटते। इधर कानों में रसमयी कथा प्रवेश करती, उधर ऑंखों से धारा बह निकलती। कक्का की भाव विह्वलता जग जाहिर है। शायद इसी वजह से मसखरों की जमात में वे लुगया कहाते हैं। इसका उन्हें भान है या नहीं, पता नहीं।
कक्का क्रोधित हों तो रोते हैं, प्रसन्न हों तो रोते हैं। किसी पुराने से मिलना हो जाए तो रोयें। काहू से बिछड़ना हो गया तो रोते हैं। वे इतना क्यों रोते हैं। उनका रोना भी अज़ीब है। ऑंखों में पानी भर आया और हो गया रोना। उनके लिए रोने का मतलब फुक्का फाड़कर रोना नहीं है।
कोई पूछे 'कक्का कैसे हो' वे कहते- 'सब रामजी की कृपा है'। यह रामजी की कृपा सब जगत पर लगातार बरस रही है। वे कहते- 'देखो घाम मिल रओ, पानू मिल रओ, हवा मिल रई। जेई तो कृपा है रामजी की। ईके लाने कौनऊ पइसा तो खरचने नहीं पड़ रए हैं'। ईश्वर तूने इतनी सारी नियामतें हमें दी हैं। मज़ा यह कि इसके बदले तू हमसे कुछ नहीं चाहता। कक्का की भावना बड़ी प्रबल है, ईश्वर की निष्ठा में कक्का तृप्ति बोध महसूस करते हैं। वे कहते कम और महसूस ज्यादा करते हैं।
आत्मा परम हो गई है जिनकी ऐसे प्राणियों को कक्का परमात्मा कहते. 'ईश्वर अंश जीव अनिवाशी'. इस संसार में दिखने वाली हर वस्तु में उस ईश्वर का अंश विद्यमान है, कक्का इस बात पर हमेशा दृढ़ रहते.
वे विशुध्द रूप से काम से काम रखने वालों में से एक हैं. 'न ऊधौ को लेने, न माधव को दैने' वाली परम्परा वाले. उनकी बातों में गहरा दर्शन जैसा प्रतिबिम्बित होता, जो होता गहरा पर लगता सहज. यही कारण है कि महिलाओं में वे बड़े लोकप्रिय हैं.
'मो सम दीन न दीन हित' वाली छवि उनके चेहरे पर स्थायी तौर पर विराजमान रहती. मनुष्य का करुणावतार उनकी ऑंखों में हरेक के लिए छलकता.
गिने चुने लोगों को छोड़कर शायद ही वे किसी पर नाराज होते होंगे. वे व्यस्त दिनचर्या के आदी थे. 'हाथ में काम, मुँह में राम' के हामी होने के कारण उनका मन लगातार काम में रमा रहता था. वे काम को छोटा या बड़ा कभी नहीं मानते. यही कारण है कि महिलाओं द्वारा किए जाने वाले कामों को भी कक्का सहजता से कर लेते थे. दोर-दरवाजे पर झाडू फेरने में उन्हें कोई लज्जा नहीं, ढिक देकर लीपने में उन्हें आलसी नहीं आती, मीठे कुआ पर महिलाओं की भीड़ में कक्का अपनी ताँबे की गुन्डी लिए सुबह से देखे जा सकते हैं. उन्ना वे फीचें, बासन वे माँजें, रोटी बनाने में उन्हें कोनऊ संकोच नई आउत, स्वपाकी होने के दसियों फायदे कक्का गिना सकते हैं. सच तो यह है कि अपने पाँच बच्चों को कक्का ने ही पाला है.
कक्का और काकी विरले ही एक साथ दिखाई देते. आपस में उनकी कद-काठी विपरीत ध्रुव थी. काकी का स्वभाव ही मर्दाना नहीं था, बल्कि उनका ऊँचा-पूरा कद उन्हें मुकम्मल 'मरदाना' व्यक्तित्व बनाता था. कक्का रोज मंदिर जाते, जबकि काकी एकादशी की कथा सुनने ही मंदिर जाया करतीं. कक्का का जब अपने बड़े भाई से बँटवारे को लेकर झगड़ा हुआ तब इसमें काकी ने कक्का को पीछे धकेल दिया और हाथ में बका लेकर खुद मोर्चा सम्हाला. काकी ने इस झगड़े में मोर्चा क्या सम्हाला, बाकी सब मोर्चों पर भी वे ही आगे रही आयीं. काकी की मुस्कान बड़ी प्रेरक थी. आधे उनकी दबंगता से उनसे दबते और बाकी बचों को वे अपनी मोहकता से कब्जे में कर लेती थीं.
कक्का किसी से भी झगड़ा नहीं करते थे. काकी से भी नहीं. मगर एक दिन उनका काकी से झगड़ा हो गया. चौंतरे पर बैठकर कक्का गालियाँ दे रहे थे. उनकी गम्मखोरी उड़न-छू हो गयी थी. गालियाँ वे अपने लड़कों को दे रहे थे. जिन्हें वे अक्सर धुँधकारी कहते. उनके दोनों बेटे दारू पीकर लड़ पड़े थे. एक अस्पताल में, दूसरा पौर में पड़ा था बेसुध. कक्का को गालियों की हिलोरें उठ रही थीं. कभी बेटों, फिर बहुओं और फिर काकी तक गालियाँ पहुँच रही थीं. काकी पड़ौसन के पापड़ बिलवा रही थीं. उन्हें जैसे कुछ पता नहीं था, जबकि कक्का की पतली आवाज़ पड़ौसन साफ तौर पर सुन रही थी. पड़ौसन ने काकी को छेड़ा- 'काय काकी, कछु हो गओ का', काकी सहज भाव से बोलीं- 'तुमाओ मों'.
कक्का की समझ में लड़कों की दो ही छवियाँ रहतीं- या तो वह धुँधकारी होगा या फिर गोकर्ण. उनके दोनों बेटे धुँधकारी थी. अब बाकी के जितने बचे उन्हें कक्का गोकर्ण बनाने का प्रयास करते रहते. यह प्रयास वे बड़ी उम्मीद से करते. कक्का नियम से अपने बनाये सभी ठिकानों पर जाते और कच्चा उमर के तमाम बच्चों को तथाकथित अच्छी शिक्षा देते. एक दिन इन्हीं कम उमर बच्चों में से किसी ने कक्का की परदनी में करेज लगा दी और कक्का के पुण्य का काम छूट गया.
उमर के तीन 'पन' यानी बचपन, जवानी और बुढ़ापा तो सभी जानते हैं, पर कक्का कहते कि हरेक 'पन' की भी यही तीनों स्टेजें होती हैं. मतलब बचपन का बचपन, बचपन की जवानी और बचपन का बुढ़ापा, जवानी का बचपन, जवानी की जवानी और जवानी का बुढ़ापा. इसी तरह बुढ़ापे का बचपन, बुढ़ापे की जवानी और बुढ़ापे का बुढ़ापा.
जब हम बचपने की जवानी में थे, तब कक्का बुढ़ापे की जवानी में थे.
कक्का जिस जमाने में पले-बढ़े उस दौर में श्रध्दा-भक्ति का बड़ा जोर था. हरेक को किसी न किसी पर भरोसा था और कोई न मिले तो भगवान पर हरेक का भरोसा था. सीमित आय, सीमित खर्च का स्वाबलम्बी समाज था, जहाँ 'जाही विधि राखे राम ताही विधि रहिए' में सभी आस्था रखते थे. जीवन दौड़ का नहीं बल्कि जीने की कला का नाम था. अच्छे-बुरे में ज्यादा फर्क नहीं था. क्योंकि बुराई को कम लोग पसंद करते थे. या लोग बुरे लोगों को नहीं बुराई को नापसंद करते थे. कक्का कलारी कभी नहीं गए. पर कलारी की खबरें कक्का के पास हर दूसरे दिन उन तक पहुँचती थीं. कक्का के दोनों बेटे दारूखोर थे और दारू पीकर झगड़ा करने में कभी गुरेज नहीं करते थे. वे रोज कमाते, रोज दारू पी जाते. उनके बाल-बच्चों का खर्चा कक्का के सिर पड़ता था. कक्का अपने बेटों से जितनी चाहे नफरत करें, पर अपने नाती-पोतों से बहुत प्यार करते थे. कक्का अपनी खून-पसीने की कमाई का एक बड़ा हिस्सा उन पर खर्च कर देते थे. कक्का टायर की चप्पलें पहनते, पर कक्का के नाती पंप-शू डाटकर चलते. कक्का जीवनभर लट्ठा की कुरती और लंकलाट की धोती पहनते रहे, पर उनके नाती-पोतों ने टेरीकाट की शर्ट और पॉपलीन का पजामा पहना. कक्का और काकी में इस बात पर भी झगड़ा होता और काकी झगड़कर अपनी लड़कियों के यहाँ रहने चली जातीं. उनकी एक लड़की सरकारी नौकर हो गयी थीं और काकी हमेशा के लिए उसके साथ रहने को चली गयीं. बाद में उसकी शादी हो गयी, तब भी काकी वहीं बनीं आयीं.
ठंड हो, बरसात हो, कक्का के नियम में मौसम कभी बाधा नीं बन पाया. 'चुटइय्या में गाँठ बाँध लो' वाली परम्परा कक्का को विरासत में मिली. बचपन में कर्म-काण्ड लायक श्लोक सीखते समय उन्हें जो संस्कार मिले उनमें समय की पाबंदी और प्रतिदिन का अभ्यास शामिल था. काम की महत्ता को कक्का गहरे तक समझते थे, वे कहते- 'मियाँ क्या कर, पयजामा फाड़कर सियाँ कर'. ठलुआ बैठने से हाथ-पाँव में जंग लगती है अत: कुछ न कुछ काम करते रहना जरूरी है फिर चाहे पायजामे को फाड़कर दोबारा क्यों न सिलना पड़े।
समाज में कक्का की छवि 'गऊ' आदमी की थी। उनसे उनके हमउम्र जिस बेफिक्री से बात कर लेते थे, बच्चे और महिलाएँ भी उसी अधिकार से बातें कर लेते थे. हरेक उन्हें अपने सुख-दुख में शरीक करता था. दूसरों से छुपाने योग्य बातें भी कक्का को बतायी जाती थीं. मजा यह कि वे बड़ी गंभीरता से बातों को सुनते और सनातन समाधान प्रस्तुत करते. बातों को इधर-उधर न करने की कक्का की ख्याति थी. उन्हें अपनी छवि का बड़ा ख्याल रहता. उनका सारा आचार-व्यवहार इसी छवि की लक्ष्मण रेखा के गिर्द घूमता रहता. सज्जनता के उदाहरण कक्का पर जाकर रुकते. कक्का ने अपने गुरू पंडित शोभारामदास शास्त्री की संस्कृत पाठशाला में चपरासी के तौर पर जीवन की शुरूआत की. उस जमाने में नौकरी को बुरा माना जाता. 'सबते अधम चाकरी'. हाँलाकि नौकरी मिलती भी नहीं थी. चूँकि पंडितजी पाठशाला चलाने का नेक काम कर रहे थे सो कक्का ने उनकी पाठशाला में यह काम करना शुरू कर दिया. यह बात आजादी से पहले की थी और कक्का को तनख्वाह मिलती थी बारह रुपए महीना. सस्ते का जमाना था सो बारह रुपए भी बड़ी कीमत रखते थे. कक्का का काम था शिक्षा समिति के सदस्यों से स्कूल की गतिविधियों से संबंधित कागजातों पर दस्तखत करवाना. इसके अलावा कक्का इस पाठशाला में 'पीर, बाबर्ची, मिश्ती, खर' थे. उन सारे कामों को जिन्हें दूसरे छोड़ देते, कक्का सहजता से स्वीकार कर लेते। चंदे की रसीदें बाँटना, विद्यार्थियों की रहने की व्यवस्था करना, शास्त्री जी की सेवा-टहल करना कक्का के अघोषित काम थे.
सहजता कक्का के स्वभाव का मूल आधार है. 'हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ' में उनकी गहरी आस्था है. रोजमर्रा की सामान्य गतिविधियाँ उन्हें उद्वेलित नहीं करतीं. बच्चे रो रहे हैं, महिलाएँ झगड़ रही हैं, बाप को बेटे ने पीट दिया है, किसी के घर बेटी की बारात आ रही है, किसी को हवेली बन रही है, कोई नयी दुकान खुल रही है, सरपंची का चुनाव प्रचार हो रहा है, राय बहादुर की मौड़ी कलुआ के संग भाग गई है, 'प्रेमीद्वारे' में छापा पड़ गया है, 'चौकी' में अनाचार हो गया, इंटरमीडिएट की परीक्षा के पेपर बाजार में बिक रहे हैं, झंडा छाप बीड़ी वाले प्रचार में एक बिन्डल पर एक बिन्डल मुफ्त में बाँट रहे हैं. 'तिलयाँत' में जुआ पकड़ गया है, रमुआ का कुऑं 'भैं' गया है, मनगोले को लरका जेबकटी में 'बिद' गओ, रासबिहारी खौं ठकुरास ने दचक दओ, जैसी खबरों से कक्का निर्विकार बने रहते हैं, वे पानी में तेल जैसे हैं. दुनिया जहान की घटनाओं का, धतकरमों का कक्का की दिनचर्या पर कोई फर्क नहीं पड़ता. वे औंचक होकर कहीं नहीं रुकते. अपनी सहज गति और तन्मयता से वे अपने में मगन बने रहते हैं. 'काहु न कोऊ सुख-दुख कर दाता' कहकर वे हरेक छोटी-बड़ी घटना को खारिज कर देते हैं. वे कोई घटना नहीं बनना चाहते और समरस बने रहते हैं.
स्वाबलंबन में उनकी गहरी आस्था है. वे अपनी जरूरत के हर छोटे-बड़े काम स्वयं ही कर लेते हैं. सहज जिज्ञासुवृत्ति होने के कारण उन्होंने बहुत सारी बातें सीख ली हैं. टोने-टोटकों का मनोविज्ञान वे समझते हैं इसलिए उनका समाधान भी वे चतुराई से हँसते हुए कर लेते हैं. 'वद सूंटना' उन्हें आता है, बिच्छू के काटे का इलाज उनके पास है, फोड़ा-फुन्सी को पकाने की दवा वे जानते हैं, हवा-बैर का उतार उनके पास है, तीज-त्यौहार, ग्रह-शा, दिशा-शूल, दिनमान, शुभ-असुभ उन्हें कण्ठस्थ हैं, ढेरों बातों के वे रामबाण हैं, ऍंधों की लाठी हैं और कइयों के लिए वे 'लत्ता के साँप' भी बन जाते हैं.
कक्का की एक और छवि है. वे पक्के रामभक्त हैं. गाँव में कहीं भी कथा-कीर्तन हो, कक्का सबसे पहले वहाँ पहुँचेंगे और आखिर में 'फट्टा उठाकर' ही लौटेंगे. कथा-प्रवचन के समय उनकी जिम्मेदारी और सामाजिकता देखने लायक होती है. आरती फेरने से लगाकर प्रसाद वितरण का काम उनको सहज ही सौंपा जाता है. कक्का अपने को सेवक मानते. वे कहते 'सबते सेवक धर्म कठोर' और इस कठोर धर्म का पालन भी वे हँसते-हँसते करते. उनकी बोली में अपनेपन की मिठास घुली होती. कार्तिक में जब कतकारीं 'भई न बिरज की मोर, सखी री मैं' गातीं तो कक्का के कण्ठ से स्वर अपने आप फूट पड़ते. हाँलाकि कक्का बेसुरे नहीं थे, पर भाव-विभोर होने से उनका गला और ऑंखें भर आती थीं और उनका स्वर भर्रा जाता था.
कक्का को पैतृक सम्पत्ति के तौर पर तीन मकान और कुछ बीघा जमीन मिली थी. यह जमीन उन्हें अपने भाई से लम्बी लड़ाई के बाद हासिल हुई थी. तीनों मकान कच्चे-पक्के थे यानी आधे कच्चे और आधे पकी ईंटों से बने. गाँवों के परम्परागत मकानों जैसे. गोबर से लिपे और पोतनी से पुते. जिसमें कक्का रहते उसमें पहले पौर थी, उसके आगे ऑंगन था. ऑंगन से लगी हुई छपरी थी. ऑंगन के एक किनारे पर घिनौची थी, जहाँ एक अमरूद, एक नींबू, एक अनार और एक नागदौन का झाड़ लगा था. घिनौची के बगल से अटारी के लिए सीढ़ियाँ थीं. अटारी पर कक्का के बहू-बेटे का कब्जा था. कक्का हमेशा से पौर में ही सोते थे. उनकी खाट हमेशा पौर में टिकी रहती. दीवार में ठुके घुल्लों पर उनकी बंडी और परधनी टंगी रहती. दीवार के आरों में ढिबरी रखी रहती. दस फीट गुणा सात फीट का हिस्सा 'जोई राम-सोई राम' के अंदाज में रहा आता, बिल्कुल कक्का के अंदाज में, बिना किसी बदलाव के.
तीन मकानों में से एक में उनकी बेटी रहती और एक मकान हमेशा किराये पर लगा रहता. कक्का के कमान में रहने के लिए जब लोग आते तो वे किरायेदार होते और जब मकान खाली करते तो घरवालों में बदल जाते. कक्का सबको घराती बना लेते. उनके किरायेदार ट्रांसफर होने पर ही मकान खाली करते. कक्का का संग-साथ एक बार होने पर उन्हें भुलाया नहीं जा सकता. कक्का बहुत कम गाँव बाहर जाते, लेकिन वे जब भी आसपास के किसी गाँव, शहर जाते तो इन्हीं अपने पुराने किरायेदारों के यहाँ रुका करते. कक्का के पहुँचने से सभी परिजनों में खुशी की लहर दौड़ जाती. कक्का का आत्मीय संग हरेक पाना चाहता. कक्का की तासीर ही कुछ ऐसी थी कि वह हरेक में घुल-मिल जाती. लोग अपने भीतर चलने वाली उथल-पुथल को कक्का के सामने उजागर कर देते. और कक्का धीरज से उनकी बातें सुनते और खरे समाधान प्रस्तुत करते, नहीं तो सांत्वना प्रदान करते. कक्का किसी के मेहमान बने तो चार-छह दिन से पहले उनका छुटकारा नहीं, लोग उन्हें मनुहार कर करके रोकते. कक्का के लिए अच्छे लोगों की कभी कमी नहीं रही.
कक्का ने कभी किसी से अनुचित व्यवहार नहीं किया. वे उस परम्परा के थे जहाँ अपने बच्चों का परिचय भी 'आपके बच्चे हैं' के तौर पर दिया जाता है. इस तरह से कक्का का अपना कुछ नहीं था, जो था सब दूसरों का था. इसलिए उनका आचरण हमेशा दूसरों के लिए अनुकरणीय रहा आया. 'सादा जीवन उच्च विचार', 'कम खाना गम खाना' कक्का के जीवन का मूल स्वभाव है. उनका चरित्र रक्षात्मक है.
गाँव का किसान चैत में, फसल आने पर अपनी सब देनदारियाँ चुकाया करता है. बढ़ाई, कुम्हार, नाई, धोबी, लुहार, साहूकार और अंत में बामन की भी देनगी चुकता करना होती है. कक्का के भी सैकड़ों किसान जजमान थे जो सालभर में एक बार हिसाब-किताब चुकता करते थे. चैत के दिनों में कक्का की व्यस्तता बढ़ जाती. सभी किसानों के खलिहानों में कक्का 'थन्ना छूने' जाते. वे खड़े-खड़े हालचाल पूछते, ज्ञान की बातें करते और किसान की दी हुई अन्न राशि को हाथ से छू देते और उगले खलिहान की ओर रवाना हो जाते. कक्का द्वारा स्वीकार किया गया अन्न, उनके घर तक पहुँचाने की जिम्मेदारी किसान की होती. कक्का एक दिन में दस-बारह किसान तक निपटा लेते और चार-छह दिनों में बीमार हो जाते. बाकी बचे किसानों के लिए वे कहते 'जोई राम सोई राम'. अधिकांश किसान कक्का का हिस्सा उनके घर बगैर उनके छुए खलिहान तक पहुँचा जाते.
'ईश्वर अंश जीवन अविनाशी, सत चेतन घन आनंद राशी' कक्का भाव विभोर होते और चौपाइयाँ गाने लगते. वे सचमुच हरेक में ईश्वर को देखते. 'चींटी मारने से पाप लगता है, क्योंकि उसमें भी वही आत्मा है जो हमारे भीतर है' जैसी सीखें उन्हें सैकड़ों बच्चों को सिखाई होंगी. दूसरों को तकलीफ पहुँचाने को भी वे पसंद नहीं करते. 'परहित सरस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई'. हर बात, हर घटना, प्रत्येक आचरण के संबंध में उनके पास चौपाइयाँ थीं. मुश्किल से मुश्किल समस्याओं के समाधान वे रामचरित मानस में से खोज देते. मानस की प्रश्नोत्तरी उन्हें सधी हुई थी. 'कक्का अड़चन आन पड़ी, कैसे सुलझेगी?' कक्का जिज्ञासु की उँगली रामायण के प्रश्न-श्लाका चक्र में रखवाते. वे यह भी बता देते कि उँगली रखते समय जिज्ञासा मन में चलना चाहिए और ऑंखें बंद होना चाहिए. कक्का ने हजारों लोगों की जिज्ञासाएँ शांत की हैं. कक्का कहते हैं- 'पूजा तीन प्रकार की छोटी, बड़ी, मझोल' जैसा यजमान होता, उसके लिए वैसा समाधान वे हाजिर कर देते.
कक्का को जीवन की सहज लय प्राप्त हो गई थी. वे उसी में रमे रहते थे. अवसर-काज, शादी-विवाह, मेले-ठेले, जनम-मरण के कैसे भी आयोजनों में वे बहुत कम जाते. बढ़ाई-बुराई की वृत्तियों से वे ऊपर उठ गए थछे. वे कहते- 'बहुत दुनिया देखी है हमने, सार यही है कि माटी को जौ तन, माटी में मिल जानें, कछू साथ नईं जानें'. वे गाँधीवाद नहीं जानते, लेकिन गाँधी गुमनाम अनुआयी थे, बुरी बातों को बोलने, सुनने और देखने से परहेज करते. भारत छोड़ो आंदोलन के समय 'गाँधी बब्बा' की सभा के धुँधले चित्र कक्का को याद थे. तब गाँव-देहात से लोगों के हुजूम के हुजूम गाँधी बब्बा को एक नजर देखने के लिए उमड़ पड़े थे. तब तक गाँधीजी रहस्यमय व्यक्तित्व के तौर पर सारे इलाके में प्रचारित हो गए थे.
कक्का का भरोसा कर्म में था- 'कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करे सो तस फल चाखा'. कर्म की तरफदारी और आलस्य के खिलाफ उन्हें दसियों श्लोक, पचासों कैनातें याद थीं. कक्का गुड़ पहले छोड़ते फिर गुलगुलों से परहेज करने की सीख देते. 'तीन खायें, तेरह की भूख' से भी वे मुक्त हो चुके थे. 'गोधन, गज धन, बाज धन और धन रतन की खान, जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान'. वे संतोषी जीव थे. हाय-हाय को वे 'मनस:-वाचा-कर्मणा' अपव्यय मानते.
कक्का हफ्ते में एक दिन मौन व्रत रखते और नमक नहीं खाते. पारणा करते और आखिर में रामधुन गाते. इस दिन वे चीटियों के लिए आटा बिखेरते, मछलियों के लिए आटे की गोलियाँ बनाकर तालाब जाते और घाट पर शांति से बैठकर उन्हें गोलियाँ चुनाते. कक्का के कार्य-व्यापार में पितृ-ऋण, मातृ-ऋण, माटी-ऋण से ऊऋण होने की भावना संचालित रहती. खाने-सोने और रोने को वे जीवन का उद्देश्य नहीं मानते. 'जो जनम अकारथ गवाने को थोड़ी है'. कक्का कबीरपंथी भजन भी गुनगुनाते. 'जस की तस धर दीन्हीं चदरिया' गाते हुए वे मगन हो जाते. उनका सर्वाधिक प्रिय भजन था- 'श्रीरामचंद्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणं'.
'कम खाना, गम खाना, आये का सत्कार करना' के संस्कार कक्का ने अपने बुजुर्गों से पाये थे. कक्का अपने भाई-बहनों में सबसे छोटे थे सो माँ का दुलार उन्हें बड़ी उमर तक मिलता रहा. उनकी माँ बड़ी गबनारी थीं. भोर चार बजे से उनकी चकिया शुरू हो जाती. वे पीसतीं और गाती जातीं. कक्का एक टाँक पर सिर रखे सोते. मन हुआ तो माँ का दूध भी पीते जाते. कक्का ने पाँच साल तक माँ का दूध पिया. माँ के अत्यधिक संरक्षण ने उन्हें नाजुक बना दिया. कक्का का नाजुकपना पूरे जीवन चला. कक्का का 'मैं' पता नहीं कब समाप्त हो गया था. अब वे 'हम' में बदल गए थे. सम भाव और सामूहिक चेतना कक्का की हमेशा जगी रहती. 'वसुदेव कुटुम्बकम' की छवि उनकी आस्था में इस कदर व्याप्त थी कि अपने पराये का भेद वहाँ नहीं था. जिसे हम कंजूसी हैं उसे वे बचत मानते. जिसे हम लालच कहते, उसे वे मोह मानते- 'मोह सकल व्याधिन कर मूला, तेहि ते पुनि उपजहिं बहु शूला'.
'न हन्यते हन्यमाने शरीरे'.
एक दिन कक्का के बेटों में झगड़ा हुआ और वे हमेशा के लिए अपना पैतृक घर छोड़कर अपनी बेटी के मकान में रहने चले गए. उनकी बेटी सरकारी नौकर हो गयी थी. कक्का के यजमानों को उनके दामाद ने स्वीकार कर लिया था. कक्का द्वारा अपने बेटों के लिए घर छोड़ देने पर पुरा-पड़ौस में उनकी भारी खुसफुस हुई. उन्हें वापस घर लाने के लिए मान-मनौव्वल हुई, लेकिन कक्का अंतिम साँस तक वापस नहीं लौटे.
कक्का के यजमान कई गाँवों में फैले हुए थे.
बच्चों की अधिक शैतानी कक्का को सख्त नापसंद थी. पूजा-आरती खत्म होने के बाद परिक्रमा करने में कक्का सबसे आगे रहते. एक बार किसी ने परकम्मा में कपड़ों का ढेर रख दिया. कक्का को लगा कोई लेटा है. वे घबरा गए और थोड़ी देर में जब सहज हुए तो उन्हें बच्चों की शरारत समझ आई फिर तो उन्होंने सभी को कसकर डांट पिलाई. बाद में बच्चे इस घटना को लेकर कक्का को चिढ़ाने लगे- 'कक्का कोऊ परो है'.
मंदिर के बरामदे में छाया के लिए टीन की चद्दरें लगी हुई थीं, मंदिर पुराना था और ऊपर से खस्ताहाल हो रहा था, जिससे चूने की रेत जैसे कण प्लास्टर गाहे-बगाहे झड़ता और चद्दरों पर गिरता जिससे कई बार लगता कि पानी की बूँदें गिर रही हैं, कई बार लगता कि कोई दबे पैर चल रहा है.
रामकथा चल रही हो तो कक्का कहते हनुमान जी कथा सुनने आ रहे हैं, कृष्णलीला होती तो वे कहते बालकृष्ण लकड़ी की गाड़ी चला रहे हैं- 'गड़-गड़ गड्डी'. गाँव में डेढ़ दर्जन मंदिर थी और जहाँ भी कथा प्रवचन होते कक्का वहाँ एक के बाद एक पहुँचते. एक जगह की आरती करवाते, फिर दूसरी जगह कथा प्रारंभ करवाने पहुँच जाते.
कक्का की सुमरनी हमेशा उनके हाथ में बनी रहती. 'राम नाम' के प्रताप को उन्होंने आत्मसात कर लिया था. वे कहते- 'राम ते अधिक राम कर नामा'. रामभक्तों की हमारे समाज में बड़ी पूछपरख है. 'राम काज कीन्हें बिना मोहि कहाँ विश्राम' की तर्ज पर वे लगातार काम करते रहते. काम को वे कभी छोटा या बड़ा नहीं मानते.
हमारे समाज में बुजुर्गों की एक बनी-बनायी छवि स्थापित हो जाती है और अधिकांश बुजुर्ग इस छवि को ना-नुकुर के बाद देर-अबेर अपना लेते हैं. कक्का ने बुजुर्गों की इस स्थापित छवि के विपरीत अपनी अलहदा तस्वीर गढ़ी थी और बुजुर्ग भी सम्मानपूर्वक आखिर समय तक समाज में रह सकते हैं, इसे मिसाल के तौर पर स्थापित किया था. कक्का बहुत कम बीमार पड़ते. उनका रहन-सहन, खान-पान बहुत संतुलित था. 'बातें कम और काम ज्यादा'. काम से उनका आशय पैसा कमाने के लिए किया जाने वाला काम नहीं है. काम उनके लिए 'कर्म' है यानी कर्म वह जो आशक्ति पैदा न करे, परिणाम की चिंता को ध्यान में रखकर न किया जाने वाला कर्म. उनका पुनर्जन्म में पक्का भरोसा था, वे मानते थे कि आज किया जाने वाला अच्छे कर्म का परिणाम अगले जन्म में प्राप्त होगा.
कक्का का नैतिकता बोध हमेशा जागृत रहा आता. इस मामले में उनकी दृढ़ता जगजाहिर थी. एक बार मूल दीवाली पर उनका एक लड़का जुआ खेलते पकड़ा गया. जुआ पकड़ने वाला थानेदार कक्का की सादगी का कायल था सो उसने नरमी में कक्का के पास सिपाही भेजा और कहलवाया कि कक्का अगर जमानतनामे पर थाने आकर दस्तखत कर दें तो उनके बेटे को छोड़ दिया जाएगा. कक्का ने सिपाही से कहा- 'काय भईय्या, हमारे दस्तखत करबे सें तुम सबको छोड़ दोगे? अगर हाँ तो ठीक है हम चलते हैं और अगर नहीं तो जो हाल सबका होगा वही हमारे लड़के का होगा. हमारो लड़का हमसें पूछ कैं तो जुआ खेल नई रओ तो. अब पकड़ो गओ तो सजा भुगते'. नैतिकता के इस प्रदर्शन के चलते कक्का-काकी में लम्बा झगड़ा चला. महीनों अबोला रहा आया, लेकिन कक्का हमेशा कहते रहे कि उन्होंने जो किया सही किया, जबकि काकी का कहना था कि अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए लोग-बाग क्या-क्या नहीं करते. कक्का का कहना था कि हाँ करते हैं- शेर अपने बच्चों को शिकार करना सिखाता है, नेवले का बच्चा साँप को मारना अपने माँ-बाप से सीखता है, लेकिन आदमी इसलिए आदमी है क्योंकि वह 'आहार-निद्रा-भय और मैथुन' के अलावा भी बहुत कुछ अपने बच्चों को सिखाता है. वह सिखाता इसलिए है क्योंकि उसे भी किसी ने सिखाया है. अच्छी शिक्षा, अच्छे विचार हमारे बुजुर्गों ने हमें सिखाये हैं. इसलिए अपने बच्चों को उन्हें बताना हमारा दायित्व है. बच्चे मानें या न मानें यह उनके ऊपर है. मानें तो ठीक, न मानें तो भुगतें.
अजरा अमरवत् प्राज्ञो, विद्याम्-अर्थम् च चिन्तयेत, गृहीत इव केशेशू, मृत्युनाम भय आचरेत्. हितोपदेश का यह श्लोक कक्का को बहुत प्रिय था. वे मृत्यु से भयभीत नहीं थे. भयभीत नहीं थे याने वे सहज भाव से मृत्यु की बात करते थे, अक्सर जिससे हम डरते हैं उसकी चर्चा नहीं करते. वे मृत्यु की चर्चा करते हैं इसलिए उनकी जीवनचर्या जीवन और ऊर्जा से भरी हुई रहती. उन्हें कहीं नहीं जाना है, लेकिन उनकी चाल में तेजी है. उन्हें कुछ नहीं पाना है, लेकिन उनकी करने की गति उत्साह से भरी हुई है. कक्का की दिनचर्या सुबह चार बजे से शुरू होती और रात नौ बजे वे सोने चले जाते.
कक्का के पहनावे से पता चल जाता कि मौसम बदल गया है. गर्मियों में वे बंडी पहनते. बरसात में कक्का की काली बरसाती पहले से निकल जाती. वे उसे धो-पोंछकर सुखा लेते. जाड़ों में कक्का की सदरी हफ्तों पहले धुल जाती. सूख जाती और काँसे के कटोरे को गरम करके उस पर इस्तरी कर ली जाती. कक्का की सदरी बरसों चलती. एक सदरी कक्का ने अबार के मेला से खरीदी थी. काले रंग के ऊन से बनी इसमें सफेद रंग की धारियों की डिजाइन बनी हुई थी. कक्का का मानना था कि तन को ढँकने के लिए कपड़ा चाहिए. कपड़ों से शरीर की शान नहीं है, बल्कि शरीर से कपड़ों की शान बनती है. 'सोहे न बसन बिना नारी'.
कक्का के बुजुर्ग राजदीवानी के अघोषित चाकर थे. खरगापुर दीवानी में बावन गाँव थे. और दीवान को सात तोपों की सलामी मान्य थी. दीवान किशोर सिंह बड़े प्रतापी हुए. उनकी ख्याति साम-दाम-दण्ड-भेद के जानकार के तौर पर थी. कक्का के पड़दादा को किशोर सिंह आनगाँव से लेकर आए थे. उन्हें फलित विद्या सिध्द थी. ज्योतिष के विद्वान और झाड़-फूँक के ओझा के तौर पर उन्हें पूरी अबेर में जाना जाता था. वे खरगापुर अपनी शर्तों पर आए, जिनमें से कुछ यों थीं- वे दरबार के घोषित चाकर नहीं रहेंगे. यानी दरबार से वे पगार नहीं लेंगे. वे किले में पगड़ी और जूते पहनकर जा सकेंगे. उन्हें खेती की जमीन और मकान को जमीन दरबार दान करे. उन दिनों दान की जमीन पर कोई कर देय नहीं होता था. उनकी आखिरी शर्त थी कि पूरा गाँव उनका जजमान होगा और स्थानीय पंडित उनके काम में अडंगा नहीं लगायेंगे. किशोर सिंह ने उनकी सभी माँगें स्वीकार कीं और इस तरह वे खरगापुर आ बसे. खेती की जमीन भी उन्हें गाँव के पास और नाले के किनारे मिली. काली मिट्टी की इस जमीन में लकड़ी के रहट वाला एक कुऑं भी था. दस एकड़ के रकबे की इस जमीन को उन्होंने अपने खून-पसीने से सींचा. इस जमीन की मेढ़ों पर अशोक, चंदन, नीलगिरि, शाल, शीशम, वेल, आम, महुआ जैसे कीमती और फलदार वृक्ष लगाये. वहीं शहतूत, अंग्रेजी इमली, ऊमर, नीम, खैर आदि के पेड़ वहाँ पहले से ही मौजूद थे. नाले के दोनों ओर कबा के पेड़ थे. जिस नदी-नालों के किनारों पर कबा के पेड़ हों उसको सनातन माना जाता है. जमीन की बगल से नाला होने के कारण कुऑं भी हमेशा भरा रहता.
कक्का के पाँव बहुत कम डगमगाए. उनकी सुमरिनी हमेशा चलती रही और उन्हें हमेशा ही दूसरों का ख्याल बना रहा. 'एक बार त्रेता युग माहीं' की तर्ज पर उनकी कथाएँ चलती रहतीं. उनकी ऑंखों की नमी और दिल की उमंग कभी समाप्त नहीं होती. सच्ची बात और सुरीली बानी उनके कंठ में हमेशा मौजूद रही आई. कक्का की छाप-तिलक पक्की है यानी वे रामानंदी तिलक लगाते हैं, गले में कंठी और पैरों में खड़ाऊँ पहनते हैं. वे वीतरागी नहीं हैं, पर वे गृहस्थ सन्यासी हैं.

Friday, July 18, 2008

दिसंबर १९८४ का कोई एक दिन

आत्मा अकेला आँसू बहाता उठता है
अपना कोई अपनापन जता के आओ
बहलाओ बाँहों से बहुत सारा बहुत बार
बेचारा बैचेन बेहाल होता बहुलता से
बेहद वीरानी में बौराया हुआ लगता
मजबूरी में फँसा हुआ बेचारा अकेला है।