Saturday, December 19, 2009

नफरत के बीज

तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने मुझे एक गाना सुनाया. मैंने सुना और हँस दिया. गाने पर आप भी गौर करें -


(सुनो गौर से दुनिया वालो, बुरी नज़र न हम पर डालो, चाहे जितना ज़ोर लगा लो) की तर्ज पर गाना था -

सुनो गौर से दुनिया वालो

फटे दूध की चाय बना लो

शक्कर-पत्ती कुछ न डालो

पीने वाले होंगे पाकिस्तानी

हमने बनायी है, तुम भी पियो...


इस गाने में - पाकिस्तानी - शब्द उसके दिमाग में कहाँ से आया? यह सवाल है. मैं जिस शहर में रहता हूँ वह पूरी दुनिया में गैस कांड के नाम से भी जाना जाता है और गैस कांड में हजारों मासूमों को जान गंवानी पड़ी. गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार देश के लिए मेरी बच्ची के दिमाग में कुछ भी नकारात्मक नहीं है? क्यों? जबकि पाकिस्तान हमारे साथ क्या-कुछ कर रहा है, वह अर्द्धसत्य ही ज्यादा है और जगजाहिर है कि राजनैतिक सच्ची तस्वीर उजागर होने के खिलाफ रहते है.

बच्चों के दिमाग में अनजाने ही बोए गए नफरत के इन बीजों की फसल कैसी होगी? सोच कर दिल काँप उठता है.

Friday, September 4, 2009

भरा-पूरा इंसान

उन्हें पढ़ते हुए अक्सर ही ईर्ष्यालु हो उठता हूँ कि देखो 94 साल के बुजुर्गवार किस कदर ज़िंदगी के मज़े उड़ा रहे हैं. रोज़ दो पेग शैम्पेन और बढ़िया स्कॉच पीते हैं. महिला-मित्रों और तमाम नामी लोगों के किस्से चटकारे लेकर लिखते हैं. दुनियाभर की खुशफ़हम बातें सुनाते हैं और खुद गुड़ खाकर दूसरों को गुलगुले खाने की सलाह देते हैं. हैं न कमाल के ज़िंदादिल इंसान.

बात कर रहा हूँ मशहूर हस्ती खुशवंत सिंह के बारे में, जिनके लिखे को मैं बेहद पसंद करता हूँ. उनके हफ्तावार छपने वाले कॉलम को हर हाल में पढ़ता हूँ. चुनाचे मैं उनका मुरीद हूँ और चंद प्रेरणास्पद लोगों की सूची में उन्हें अव्वल दर्जे पर रखता हूँ. अब सवाल है कि फिर क्योंकर उनसे ईर्ष्या होती है. तो वो ये कि किस कदर ज़िंदादिली भरी है इस इंसान में. दुनिया जहान के बोझों से मुक्त. ज़िंदगी को खालिस मज़ा उठाने की चीज़ मानते हुए उनका फलसफा एकदम साफ है. यह जीवन रोने-बिसूरने के लिए नहीं है - यह तो मौज़ करने के लिए है. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि दुनिया को लेकर उनका रवैया गैर जिम्मेदाराना है. जब जरूरत पड़ती है वो दुनियावी मुद्दों पर बगैर लाग-लपेट के अपनी राय जाहिर करते हैं.

कुल जमा इतना भर कि उनके लिखे को बाँचकर खुशी मिलती है और ईर्ष्या इसलिए कि उनके जैसा साफ और बेबाक लिखने का हुनर कहाँ से पैदा होता है, नहीं जानता. हालाँकि वे मूल तौर पर अँगरेजी में लिखते हैं (पक्के तौर पर नहीं जानता) और हिन्दी में अनुवाद होकर छपता है. शायद इसीलिए खुशवंत सिंह को पढ़ते हुए वैसा घरोवा महसूस नहीं होता जैसा हिन्दी के नामी और दीगर लेखकों को पढ़कर होता है. उनके लिखे की दिलेरी की एक वजह शायद अँगरेजी में लिखे जाने की वजह से भी पैदा होती है. अँगरेजी हमें हिम्मती बनाती है - बहुत-सी बातों, परम्पराओं, धारणाओं से मुक्त करती है. यह बात केवल अँगरेजी के साथ ही नहीं दुनिया की तमाम दीगर भाषाओं पर लागू हो सकती है. यानी आप मातृभाषा से इतर किसी भी भाषा में लिखेंगे तो अतिरिक्त दिलेरी अपने आप आ जायेगी. हालाँकि नामी रचनाकारों ने मातृभाषा में भी अद्भुत लिखा और नये मिथ-मुहावरे गढ़े हैं.

हालाँकि अपने सुदीर्घ जीवन में खुशवंत सिंह ने भी कथनी और करनी के द्वैत का सामना किया होगा. बहुतेरे लोग उन्हें करीब से जानते होंगे, लेकिन मुझ जैसे उनके पाठक-प्रशंसक उनके बारे में उतना ही जानते हैं जितना उन्होंने अपने बारे में बताया या कि फिर उनकी किताबों, संस्मरणों या आत्मकथा से बयान हो सका. यहाँ जिक्र लाज़िमी है कि हिन्दी के पाठकों को खुशवंत सिंह के बहुआयामी व्यक्तित्व को जानने के लिए उनके नामी उपन्यास 'दिल्ली' का उषा महाजन द्वारा किया गया अनुवाद जो 1994 में प्रकाशित हुआ था, से खासी मदद मिलती है.

उनके कुछ निष्कर्ष जो मैं समझ सका :

फूल खिलता है तो वह किसी के पास नहीं जाता कि तुम मेरी सुंदरता को देखो, मेरी खुशबू महसूस करो. लोग स्वयं ही फूल की खासियतों की वजह से उसके पास पहुँचते हैं.

अपनी शक्ति पहचानो और ऊर्जावान बनो. लेकिन बनोगे कैसे? क्योंकि हमारी दृष्टि तो केवल दूसरों पर ही बनी रहती है.

अक्सर लोग अपने अंदर के खोखलेपन से भयभीत होकर दोहरेपन का पर्दा लगा लेते हैं. वे चाहते हैं कि हमारे खालीपन को कोई देख न सके और यहीं से शुरू होता है छिपाव का सिलसिला जो ज़िंदगी को नरक में तब्दील होने तक चलता रहता है.

लोग कहते हैं कि उन्होंने अपने समाज, अपने परिवार और अपने बेटों के लिए क्या नहीं किया, लेकिन सभी लोग समय गुजरने के साथ कृतघ्नी हो गए. दगाबाजी याद रखने की वजह से लोग दुखी होते रहते हैं, जबकि हमें लोगों के द्वारा दी गई मदद को याद करके खुश होते रहना चाहिए.

बहरहाल, एक भरे-पूरे इंसान की बातों से दर्जनों सूक्तियाँ निकाली जा सकती हैं.

Wednesday, August 12, 2009

कीमती संदर्भ

पिछले दिनों अथर्ववेद पर प्रख्यात विद्वान करपात्रीजी की टीका पढ़ रहा था। हालाँकि इस टीका में उन्होंने कहीं भी ऐसा दावा नहीं किया है कि अथर्ववेद की उनकी यह मौलिक व्याख्या है। टीका की भूमिका में - कवि न होऊँ, नहिं चतुर कहावउँ - वाली विनम्रता ही उजागर हो पाती है। खैर.

हरेक के भीतरर् कत्ता (करने वाला) और दृष्टा (देखने वाला या तटस्थ या वह जिसे गाँधीजी आत्मा की आवाज़ कहते हैं) का द्वंद्व लगातार चलता रहता है. कुछ तथ्य हैं जिन पर गौर करें :

जीवन में उच्च भौतिक उपलब्धियों को हासिल करने के बाद अचानक व्यर्थताबोध का भाव प्रबल हो उठता है, लगता है कि नाहक ही इसकी खातिर इतना श्रम, इतने संसाधन खर्च किये गये.

दूसरी ओर विकट बुरी दशा में, जब कोई वश नहीं चलता, अचानक से हम शांत हो जाते हैं - सारा विरोध और कुछ कर गुजरने की सारी बेचैनी गायब हो जाती है, कि जैसे हम परिस्थिति के हाथों खुद को छोड़ देते हैं. कुल निष्कर्ष यह कि भीतरी दुनिया में दो का द्वंद्व लगातार जारी है। कभी एक सक्रिय होकर दूसरे पर भारी पड़ता है तो कभी दूसरा पहले पर.

अथर्ववेद का ऋषि कहता है : मैं अमृतमयी वाणी बोलूं, मेरी जिह्वा के अग्रभाग में माधुर्य हो, जिह्वा के मूल में माधुर्य का स्त्रोत हो, मेरे कर्म, बुध्दि, विचार और चित मधुसिक्त हों. यह ऋषि द्वारा माधुर्य प्राप्ति के लिए ईश्वर से की गई प्रार्थना है. माधुर्य ही इस सृष्टि में आनंद लोक के निर्माण में उत्प्रेरक का कार्य कर सकता है. वास्तव में आनंद का उद्गम स्थल तो हमारा हृदय ही है, परंतु जीवन की मधुरता आनंद के इस उद्रेक को बढ़ाती है.

सुख से आगे की स्थिति है आनंद. सुख की सीमाएं हैं, परंतु आनंद किसी सीमा बंधन में नहीं बंधता. आनंद अपार होता है. प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा, सौहार्द और सहिष्णुता आनंद को बढ़ाने वाली प्रवृत्तियां हैं. इसी प्रकारर् ईष्या, द्वेष, घृणा और इनसे उत्पन्न होने वाली उत्तेजना, आवेश और क्रोध हमारे भीतर आनंद के कलश को खाली कर देते हैं.

करपात्री जी आनंद की व्याख्या करते हुए लिखते हैं :

वास्तव में आनंद, जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है.र् ईष्या के दो स्वरूप माने गए हैं. यदिर् ईष्या स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता को जन्म देती है और मानव के उत्थान में सहायक होती है, तो इसेर् ईष्या का सकारात्मक स्वरूप कहा जाएगा. परंतु यदिर् ईष्या दूसरे की उन्नति से हमारे भीतर द्वेष उत्पन्न करती है तो यहर् ईष्या का नकारात्मक स्वरूप कहलाएगा. ईष्या से ही द्वेष की भी उत्पत्ति होती है और द्वेष दूसरे को केवल हानि ही नहीं पहुंचाता बल्कि हमारे आनंद को भी दग्ध करता है. दूसरे को हानि पहुंचाने पर व्यक्ति स्वयं भी मलिनता से ग्रस्त रहता है, ठीक उसी प्रकार जैसे क्रिया की प्रतिक्रिया होना अवश्यंभावी है. दुर्भावनाएं,र् ईष्या और द्वेष की पूरक हैं और हमारे भीतर आवेश और क्रोध का संचार करती हैं. कहा गया है किर् ईष्यालु का अन्त:करण मृतप्राय हो जाता है. आवेश और उत्तेजना, व्यक्ति के अन्तस को अनुभूतियों से रिक्त कर देती हैं और वह व्यक्ति क्रोध और प्रतिशोध को ही जीवन का ध्येय बना लेता है.

Sunday, August 2, 2009

छवि और भय

कह डालने से क्यों डरते हो?
क्यों स्थगित करते हो
आज को कल पर
तब कि जब
माँजते थे रकाबियाँ
गंदे और सड़े होटल में
और देखते थे ख्वाब
कि जब होऊँगा कदवान
कह जाऊँगा सब कुछ...

अब कि जब
परछाईं भी बताती है
पाँच-फुटा तो हो ही
पर अब तुम्हें
कह जाने के लिए
ताड़-सा कद चाहिए...

नहीं-नहीं कद तो बहाना है
असल में तुम कायर हो
और अपनी छवि से भयभीत हो...

अपनी छवि जो बसी है
तुम्हारी अपनी ऑंखों में
कह जाने से वह दरकेगी
वह दरक भी सकती है
इस संभावना मात्र से
तुम काँप उठते हो...

उबरो अपनी छवि के मायावी घेरे से
कल कि जब निश्चित ही
होगा तुम्हारा तिया-पाँचा
क्यों नहीं अपने हाथों
चीर डालते अपना हृदय...

क्यों नहीं फोड़ते वह ठीकरा
जिसमें भरी हैं
सड़कर बजबजातीं
मिठास-भरी पूर्व-स्मृतियाँ...

कि जैसे हगना-मूतना स्वाभाविक है
ठीक वैसे ही
भीतर भरी काली इच्छाएँ
उत्सर्जित होनी चाहिए...

और फिर पूरी संभावना है
कि उस गटर-गंगा में
मिल जाए एकाध मोती
जो किसी के तो क्या
शायद तुम्हारे ही काम आ जाए...

चेतो कि अपनी गढ़ी छवियों से
डरने वाले लोग
निश्चय ही मारे जाएँगे
और जिएँगे वे अनंतकाल तक
जो अपनी छवि को फिर-फिर
तोड़ेंगे और लगातार तोड़ते रहेंगे...

Friday, June 26, 2009

अपराधबोध

जानकार ऐसा कहते हैं कि हमारा राष्ट्रीय चरित्र विक्टोरियन अपराधबोध से पीड़ित है - एक ऐसी मानसिकता जो हमारे आचार-व्यवहार में दिखाई देती है, जो हमें उन्मुक्तता के साथ प्रदर्शित होने में बाधा बनती है. हमारा खान-पान, जीवनशैली सभी इससे संचालित होते हैं. हमारे सम्पूर्ण चरित्र पर यह शैली हावी हो गयी है. एक 'गिल्ट' है जो सर्वत्र व्याप्त है. एक अघोषित आचरण हम सब पर छा गया है. दुनिया के बहुतेरे समाजों में जो उल्लास-उमंग और जिजीविषा दिखाई देती है वह हमारे यहाँ सिरे से गायब है. कोई भी अवसर हो 'गिल्ट' की यह वृत्ति तत्काल वहाँ उपस्थित हो जाती है.

मातु-पिता-गुरु-प्रभु की बानी, बिना विचारि करिय शुभ जानी.

हमारे यहाँ विचारवान बनने पर ज्यादा जोर नहीं है. हमें अनुसरण करने की सीख बचपने से दी जाती है. यही कारण है कि भक्तिभाव का ज्यादा जोर हमारे स्वभाव में यों घुल-मिल गया है कि जैसे दूध में पानी. यूँ लगता है कि हमारा पूरा समाज वीतरागी बन गया है - जैसे उदासी समाज है. यूँ तो हमारा समाज उत्सवप्रिय है. उत्सवधर्मिता हमारी जीवनशैली है, लेकिन अब ये दो विपरीत ध्रुव हैं. एक तरफ उत्सवप्रियता है दूसरी तरफ अधिसंख्य सामाजिक दायित्वों के प्रति उदासीनता का भाव. हमारे अधिकांश उत्सव समाज की सन्निकटता को उजागर करते हैं. पर यह सन्निकटता या मेल-मिलाप एक खास तरह की रस्मों को निभाने की तरह हो जाता है.

जीवन में बिना कीमत कुछ भी हासिल नहीं होता. बेकीमत सिर्फ शरीर मिला है और विचार भी बेकीमत उठते हैं. विचार जब आचरण में बदलते हैं तब वे मूल्यवान हो जाते हैं, लेकिन ये बड़ा श्रमसाध्य और पीड़ाजनक कार्य है. मन और शरीर को बड़ी तकलीफ होती है. विचारों का आवेग पानी जैसा है- सतत प्रवाहमान. उसे अगर रोका गया तो वह दाएँ-बाएँ फैलने लगता है. एक तरह से अवरोध को तोड़ने की ताकत इकट्ठी करना शुरू कर देता है. किसी भी विचार को अगर बाधित किया जाए तो मन को बेचैनी से भर देता है, अस्तु विचारों की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है.

जीवों में मनुष्य ही ऐसा है जिसने स्वतंत्रता के साथ परतंत्रता का स्वाद चखा है और बयान किया है वरना प्रकृति में सभी स्वतंत्र हैं, मनुष्य को छोड़कर. इसलिए हमारा अंतस बेचैन है. विकासक्रम में हम आगे इसलिए हैं क्योंकि हमने किसी हद तक प्रकृति के नियमों को तोड़ा है. यह तरक्की बंधन पैदा करती है. यह बंधन सुख के साथ दुख भी देता है. सुविधाएँ हमें आरामतलब बनाती हैं. वे हमें बाँधती हैं.

प्रकृति में जितने अवयव हैं वे सब स्वतंत्र हैं इसलिए स्वतंत्रता प्राकृतिक है. चिड़ियाँ उड़ने को स्वतंत्र हैं, पेड़ झूमने को स्वतंत्र हैं, लेकिन आदमी हँसने को स्वतंत्र नहीं है. हमने गरीब-अमीर शब्दों का आविष्कार किया है और खाई बनायी है. असमानता हमने पैदा की है. कहा जा सकता है कि वनमानुषों का समाज कई अर्थों में समरस था. लेकिन विकास का चक्र उल्टा नहीं घूमता. लिहाजा वर्तमान युग की तथाकथित जितनी भी तरक्की है वह प्राकृतिक नहीं है. हमने प्रकृति के शोषण का पाप किया है लिहाजा भीषण त्रासदियाँ पैदा होती हैं. हमने स्वतंत्रता को बाहर खोजने की कोशिश की है, लेकिन वह हमारे आचरण में नहीं है. हम या तो किसी के द्वारा शासित हैं या फिर किसी पर शासन करना पसंद करते हैं.

Wednesday, June 24, 2009

हिंदी के पारस पत्थर

मुझे उसके पिता के बारे में पता नहीं था, पर उसके भाई को मैं जानता था. बचपने में ही सही मैंने उस पर एक लम्बी कविता लिखी थी. उसे देख मैं आज भी गहरीर् ईष्या में डूबने-उतराने लगता हूँ. उसका लिखा हुआ कोई महान साहित्य होगा, स्वयं वह भी इस बात पर शायद ही इत्तेफाक रखता हो. उसका एक कहानी संग्रह मैंने पढ़ा है. किस कदर उबाऊ और कठिन है, बताना मुश्किल है. अतुकांत कथा, कहीं से शुरू होगी, कहीं खत्म. उसका दावा है कि यह भविष्य का पाठ है. बातों की तरह उसकी कहानी में भी विशिष्ट बने रहने का आतंक बना रहता है. एक कृत्रिमता लगातार बनी रहती है. लिखता वह हिंदी में है, पर अधिकांश बातें अँगरेजी में करता है. अँगरेजी में बात करने से रौब के साथ-साथ विश्वसनीयता बरकरार रही आती है. अँगरेजी आज के समय की देवभाषा है. पूरी दुनिया का पता नहीं पर हमारे यहाँ आज भी श्रेष्ठी-वर्ग में इसे रौब-दाब के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.

उसकी बोली-बानी मीठी और विचार तार्किक हैं. शब्दों का चयन और उनका उच्चारण बेलाग है. यह सलीका उसने परिवार के बड़ों से सीखा है. इसे उसने शुरूआती सफलता के मंत्रों की तरह रटा होगा. पहले प्रभाव में रोचकता पैदा हो इसमें बातचीत का लहजा महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. बोलने का उसका ढंग, उसकी विद्वता उजागर करता है. अपने को वह बहुत कंजूसी से खर्च करता है. बहुतेरे अपने आप को बाल्टी के पानी जैसा उड़ेल देते हैं कि अगर सिर से पाँव तक सराबोर हो जाए, पर बाल्टी के पानी का भीगा, सूखने भी जल्दी लगता है. वह अपने आप को चिलमची की टोटी से निकलने वाली पतली धार की तरह खोलता है. अपने को उलीचने की उसे कोई जल्दबाजी नहीं. जितनी देर वह रिसता है, अगला उतनी देर तक उसके प्रभाव में बना रहता है.

उसके पास सिलसिलेवार किस्से हैं, जिन्हें वह एक के बाद एक सुनाता जाता है, हँसता कम हँसाता ज्यादा है. अगले के मर्म को छूने के लिए वह बातों के पैंतरे आजमाने से नहीं चूकता. यही कारण है कि उसके पुरुष मित्रों की अपेक्षा महिला मित्र अधिक हैं. वह सुदर्शन न सही, उसका व्यक्तित्व चुंबकीय है. वह उच्च शिक्षा प्राप्त है. इसका वह बहुत कम इजहार करता है. वह जो भी लिखता है उसे इतिहास में दर्ज होना है, ऐसा उसके निकट मित्र कहते हैं. वे यह भी कहते हैं कि उसे अपने बड़े भाई के कारण साहित्य में बड़ा नुकसान उठाना पड़ा. यानी लम्बे समय तक उसे रचनाकार के तौर पर स्वीकार नहीं किया गया, बल्कि उसके भाई की ख्याति को उसके साथ चस्पा किया जाता रहा है. पर सच यह भी है कि उसे अपने भाई की ख्याति का लाभ भी बहुत मिला है, वरना उस जैसै क्रांतिकारी रचनाकार दर्जनों की संख्या में चप्पलें फटकारते घूम रहे हैं साहित्य सदन के बाहर.

उसकी एक छवि साहित्य-सदन के जुगाडुओं के तौर पर भी रही है. जिस नैतिकता की वह बात लिखते हुए करता है. वह उसके आचरण में कहीं दिखाई नहीं देता है. जिन दोगले कामों के लिए वह समाज को कोसता है, स्वयं भी वह वैसे काम करने में उसे गुरेज नहीं.

सत्ता में रहकर उसकी मुखालफत करना तलवार की धार पर चलने जैसा है. वह ऐसी किसी तलवार की धार पर नहीं चलता. वह सुविधाभोगी मीठा क्रांतिकारी रचनाकार है. अबूझ किस्म की कविताएँ, कहानियाँ, हाईकू लिखता है और हर तीसरी लाईन में अँगरेजी में लिखे-पढ़े जाने को 'कोड' करके अपनी विद्वता बखान करता है.

इन दिनों वह पारस पत्थर बनने के दौर में गुजर रहा है. कल जब वह पारस बन चुकेगा और अपने भाई की खाली छोड़ी जगह पर विराजेगा तो बहुतेरे पत्थरों को स्पर्श करके उन्हें सोना बनाने में समर्थ होगा.

Tuesday, June 23, 2009

छबीली

उनके दफ्तर में उन्हें लेकर कई तरह की चर्चाओं का बाजार गर्म रहता है. वे कब आती हैं, क्या करती हैं उनसे कोई नहीं पूछता. लेकिन उनकी काया बताती है कि ब्यूटीपॉर्लर वे नियमित जाती हैं. दिनोंदिन उनकी उमर घट रही है और कई बरस पहले दिखती प्रौढ़ता अब वे नाजुकता में बदलती जा रही है. अपनी इस नाजुकता की वे बहुत सम्हाल करती हैं. इस उम्दा निखार का राज पूछने पर पहले वे मुस्काती हैं फिर राज खोल कर बताती हैं- 'लॉफिंग क्लास' ज्वॉइन कर ली है, उसी का नतीजा है. फिर जोरदार ठहाका हा.. हा.. हा.. और अलविदा हो जाती हैं.


उनसे नित नयी खुशबू आती है. किसिम-किसिम के परफ्यूम उनके पर्स में मौजूद रहते हैं. दसियों 'आसामियों' पर वे इसके जरिए रुतबा जमा चुकी हैं. उनसे जलने वाले इसे उनका छिछोरा काम मानते हैं. वे निश्छलता के साथ दूसरों की फिकर हवा में उछाल देती हैं. और 'आई डोंट केयर' मार्का अदा फेंकती हैं. वे हमेशा लकदक बनी रहती हैं और अपनी विशिष्टता को कायम रखने का इसे औजार मानती हैं. संघर्षभरे दिन उन्होंने भी देखे हैं, जब उन्हें नियम से काम करने पड़ते थे. रोजनदारी की नीरस जिम्मेदारियाँ उनके नाम भी थीं. हफ्ते में एकाध दिन उन्हें भी देर तक रुककर काम करना पड़ता था. खूसट टाइप का उनका बॉस उन्हें बेवजह अपने सामने बिठाए रखता था. बॉस का मानना था कि महिलाओं को साड़ी पहनकर ऑफिस आना चाहिए, इस कारण उन्हें अक्सर ही साड़ी पहनना पड़ती.


काम में वे हमेशा औसत रहीं. जिस काम के लिए उनकी भर्ती हुई, उससे जुड़े तमाम कामों को वे सीख चुकीं और सहजता से कर लेती थीं. उन्होंने यह भी सीखा कि 'काम करना' और 'साबित करना' दो अलग-अलग बातें हैं. यह आवश्यक नहीं कि अच्छा काम करने से होता है, अच्छा काम साबित करके दिखाने से भी होता है. उन्होंने यह कला भी सीख ली थी. पहले पहल उन्होंने काम की महत्ता को समझा. सीरियस होकर काम किया. पर धीरे-धीरे वे यह समझ गईं कि काम करने से ज्यादा उसे प्रस्तुत करने में नंबर ज्यादा मिलते हैं. काम कोई भी करे, उसे प्रस्तुत करने उन्हें ही जाना चाहिए.


बॉस उनकी सोहबत पसंद करता है, इस सच्चाई को उन्होंने धीरे-धीरे स्वीकारना शुरू कर दिया था और तेजी से उनमें बदलाव होने लगे. अब वे मौसम के हिसाब से साड़ियों के रंगों का चयन करने लगीं. हफ्ते में कुछ दिनों बालों को बाँधकर आने लगीं. यह सब इसलिए होने लगा क्योंकि साहब को पसंद है. साहब के घरेलू मुद्दों पर भी वे धीरे-धीरे बात करने लगीं. साहब पर कौन से रंग के कपड़े ज्यादा फबते हैं, वे यह भी तय करने लगीं. साहब की घरेलू खरीददारी में भी उनका सहयोग बढ़ने लगा और ज्यों-ज्यों वे वहाँ व्यस्त होने लगीं ऑफिस की जिम्मेदारियों से उन्हें मुक्ति मिलने लगी.


वे धाराप्रवाह अंगरेजी बोलती हैं और कई बार भूल जाती हैं कि सुनने वाले को ठीक से हिंदी भी समझ नहीं आती. बोलने के अलावा काम करवाने की कला भी उन्हें आती है. कई बार चपरासियों से भी वे मीठे बोल बोलती पायी गईं. वे काम से काम रखने वाली हैं और बेवजह बात करना उन्हें फिजूल लगता है.

सीखने की उनमें जबरदस्त इच्छाशक्ति है. हर वह काम जिसमें फायदा संभावित है उसे सीखने की लगन वे पैदा कर लेती हैं. उनका सम्पूरन व्यक्तित्व सीख-सीख कर ही बना है. एक तरह से वे भारतीय संविधान हैं. फर्क इतना है कि भारतीय संविधान में सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाय की भावना प्रबल है, जबकि उनके भीतर स्वयं की सुख-सुविधा और रुतबा कैसे लगातार बढ़ता जाए इस बाबत उन्होंने चुन-चुनकर दुनियादार और कामयाब लोगों की आचार-व्यवहार को अपने में आत्मसात कर लिया है. थोड़ी-थोड़ी जानकारी वे हर क्षेत्र की रखती हैं. वे लिखती हैं, पढ़ती हैं, प्रस्तुत होना जानती हैं. कुल मिलाकर उनके तरकश में किस्म-किस्म के तीर मौजूद रहते हैं.


वे नये जमाने की सफल किरदार हैं और उनके बारे में लोग 'ऑंखों की भाषा' में बात करतें हैं.

Friday, June 5, 2009

पहेली

बहुत बुरा लगता है तब
और अच्छा लगता है जब
क्यों कर उपजती है कविता
अबूझ है यह सवाल
उसी से ठंडा - उसी से गरम मार्का.

Saturday, April 25, 2009

ओ पिता हमें क्षमा करना

आत्मा बेच आया हूँ
और उदास हूँ
ओ पिता हमें क्षमा करना.

पूछो कितने में?
तो सौदा बहुत सस्ता था
अनमोल नगीना
बेमोल बिक गया
बेकीमत ही समझो
चंद सुविधाएँ
चंद बेफ्रिकी
और महीने की पगार
बस यही मोल था
एक अदद ज़मीर का.

आत्मा थी जागृत
तो थीं तमाम दिक्कतें
बेवजह उठ खड़े होते थे सवाल
कुछ अच्छा तो
बहुत कुछ बुरा लगता
भीतर जैसे
आग भभक उठती थी
अब किस्सा ही खत्म
न बची आत्मा
न उठेगा सवाल.

सोचता हूँ अब चैन में रहूंगा
कुछ भी होता हो
सही-गलत के प्रश्न
अब न उठेंगे
उचित अनुचित का फर्क
अब न होगा
क्या ऐसा हो पायेगा?

ओ पिता
इसी दुनिया और इसी समय में
तुमने मिसाल कायम की थी
एक साम्राज्य के खिलाफ
आत्मा को ज़िंदा रखा था
और विजय पाई थी
भय पर - क्रोध पर - इच्छाओं पर
क्या यही भाव
इंसान को कमजोर नहीं बनाते?
और वह करता है समझौते
सिलसिलेवार
कभी न खत्म होने वाली
लिप्साओं की खातिर
रोज़-रोज़ मरता है.

ओ पिता
तुम्हारे पथ पर
तमाम लोग चले हैं
उनके नाम
विनोबा भावे, बाबा आमटे
और हाल ही की मेधा पाटकर
हो सकते हैं
इनके कामों के नतीजे
बहुत उम्मीद नहीं जगाते
इन नामों को सुनकर
ऊर्जा का संचार नहीं होता
इनका सामना
काले-ऍंग्रेजों से है
क्या यही वजह है कि
इनकी सफलता संदिग्ध है.

ओ पिता
हमें माफ करना
हमारी पशु-वृत्ति
बारम्बार जाग उठती है
और परिणाम में
हमारे निर्णय
शरीर-हित में होते हैं.

झूठे शब्द
और खोखली बातें
हो गई हैं हमारी
पथ-प्रदर्शक
खोटे सिक्कों का अब
टकसाल पर कब्जा है
हमारे संस्कार हैं मिलावटी
और चोखे की चाह
हमने त्याग दी है
और शायद इसीलिए
निराशा के विरल क्षणों में
इंसान बेचता है ज़मीर
जैसे मैं बेच आया हूँ
सस्ते दाम
ओ पिता हमें क्षमा करना.

Monday, April 20, 2009

दोराहा

मूँग की बड़ी डालते समय
उठा यह सवाल
कि इसमें कद्दू डालें या लौकी
वह थी अनजान
मैं भी सिफर

यह पहेली बूझने
उसने अपनी सास को फोन लगाया
वहाँ से उत्तर पाया
जो ठीक लगे डालो
साथ ही कहा
चलो अच्छा है
घर-गृहस्थी में
मन तो लगा तुम्हारा

पहेली अबूझी रही आयी
और मुँह बाये खड़ी रही
अब उसने
माँ को फोन लगाया
वह बोली
काहे परेशान होती हो
बाजार दर्जनों तरह की
बड़ियों से भरे हैं
जो मर्जी आये उठा लाओ

अब वह दोराहे पर थी
उलझन ने बस
रूप बदल लिया था.

Tuesday, March 3, 2009

शव और शिव

अवमानना (अपमान) वह ताप है जो आपके भीतर छुपे विकारों को उकसाता है -- वे खौलने लगते हैं और परीक्षा की घड़ी तो तब आती है जब वे बाहर बगरने को आतुर हो जाते हैं. मज़ा यह कि अधिकतम लोग इस खौलते लावे को बाहर उगल देते हैं और सारी ऊर्जा व्यर्थ बह जाती है. कुछ गिने-चुने समर्थ लोग इस खौल को कण्ठ में धारण कर लेते हैं -- ना निगलते हैं, ना उगलते हैं और तत्काल क्रांति घटती है शव होने की परिणति शिव होने की ओर चल पड़ती है.

Sunday, January 18, 2009

एकालाप

अभी तक ज़िंदा है
शरीर के भीतर
एक और शरीर
जो रोकता है
टोकता है

कटु-वचन बोलकर
भर उठता है
ग्लानि से

अपकर्म करके
करता है
पश्चाताप

पर-दुख-कातरता
अभी भी
बची है शेष

मेरे-तेरे भेद को
नहीं मानता

यह ठीक है कि
उसका जीवन
बहुत कम शेष है
लेकिन, निराश मत होओ मन
क्योंकि
मृत्यु-शैय्या पर
पड़ा रोगी
अभी मरा नहीं है
और आशा की डोर
अभी टूटी नहीं है