गाँव और शहर
जैसे सिक्के के दो पहलू
गाँव शामिल है
सदा से रक्त में
और महानगर
बदलता है चोला बार-बार
गाँव की गरीबी और
शहर की झुग्गियों का फर्क
नुमाया नहीं होता
लावारिस और आवारापने के रंग
गाँव और शहर के होते हैं जुदा
गाँव की दुनिया में पुजता था इंसान
और मास्टरों को मिलती थी
बेशुमार इज्जत
बजता हारमोनियम
होता नाच
गिल्ली-डंडा खेलते बच्चे
और होतीं कुश्तियाँ
गाँव की कविता-कहानी में
खेत और फसल
हल और बखर
निंदाई और गुड़ाई
फसल की कटाई
दाँय और उड़ान
महुआ और गुली
बेर और कंडी
क्या कुछ नहीं था
जजमानी और प्रवचन
रामलीला और नौटंकी
रावला और बेडनी का नाच
राई और दलदल घोड़ी
और फिर बजता था रमतूला
कोदों की रोटी फिर
सतुआ और बिरचुन
डुबरी और फरा या
महेरी और लपटा
चीला और सिमई
लबदो और तसमई
फिर खाते थे लोग रामदानें
जलबिहार का मेला
और ताजियों की फेरी
मीलाद की बैठक और
बजरोठी का रतजगा
जाने कहाँ बिला गया
वह जीता जागता दृश्य
अब शहर की झुग्गी में रहता है आदमी
और चलता है पैदल
पटियों पर बैठकर खाता है रोटी
कभी अधपेटा रहा आता
भौतिकता के तमाम सुख
सड़क के पार जगमग हैं
हालाँकि उसे सपने देखने से
नहीं रोका जा सकता
वह चोरी नहीं करता
करने की सोचता है
झूठ नहीं बोल पाता
ऐन मौके पर गड़बड़ाता है
वह बिना वजह
उगलता है सच
और छीनकर हासिल करने की
उसकी कूबत नहीं
नहीं सीख पाया वह
चापलूसी करना
और धोखा देना
और माँगना उधार
बुरे दिनों की छाया की मानिंद
गाँव अब तक तारी है
और लगता है उसे
लौट जायेगा वह वहीं
जहाँ से चला था
एक नौकरी
रहने को छत
बीबी और बच्चे
थोड़ा-सा सुख
थोड़ी-सी बचत
और ढेर सारे सपने
एक आदमी और क्या चाहता है ज़िंदगी से
क्या इतना भर है
जीवन का मतलब?
Wednesday, June 23, 2010
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7 comments:
एक नौकरी
रहने को छत
बीबी और बच्चे
थोड़ा-सा सुख
थोड़ी-सी बचत
और ढेर सारे सपने
एक आदमी और क्या चाहता है ज़िंदगी से
क्या इतना भर है
जीवन का मतलब?
.....
आपकी इस अद्वितीय रचना के सौंधेपन तथा गाम्भीर्य ने बस मंत्रमुग्ध कर लिया....
अप्रतिम रचना !!!
सचमुच दोनों पहलुओं को आपने अतिप्रभावी ढंग से दर्शाया है...
मनमोहक अतिसुन्दर रचना...
मेरी बधाई स्वीकार करें और साधुवाद भी
कि मैं एक ऐसी ही सम्पूर्ण कविता का अभिलाषी था इन दिनों
अजब आनंद आया है और भी लिए जा रहा हूँ
इस कविता में मेरा संसार मुस्कुराता है.
पुनश्चः बड़ी सुंदर रचना.
और लगता है उसे
लौट जायेगा वह वहीं
जहाँ से चला था
very touching !
गाँव शामिल है
सदा से रक्त में
और महानगर
बदलता है चोला बार-बार...
अद्वितीय रचना...
आपके ब्लॉग पे बहुत अरसे बाद आना हुआ पर आपकी रचना पढ़ कर बस एक बात जुबान पे है "वाह ... बहुत सुन्दर"!
बहुत दिनों बाद आप के ब्लॉग पर आई हूँ. कविता पढ़ का इतना ही कहूँगी --वाह क्या बात है...बहुत बढ़िया.
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