सजता है उनका दरबार और उसमें होने को शामिल तरसते हैं सब. जैसे तरबूजे को देखकर तरबूजा बदलता है रंग, वैसे ही उनकी नज़रें-इनायतों की खातिर सभी लगे हैं अपना काया-कल्प करने में. वे कहते हैं हाँ तो सामूहिक स्वर हामी भरता है. उनकी ना को सभी अनुनासिक होकर स्वीकारते हैं. तिस पर मज़ा यह कि वे अपनी इस भेड़ियाधसान फौज को अच्छी तरह पहचानते हैं.
कभी जब होते हैं वे नाखुश तो कुछ के चेहरे गमगीन और कुछ भीतर से आनंदित होते हैं. होती है किसी की तारीफ तो सभी डेढ़ इंच की मुस्कान लिये इसे प्रत्यक्ष-परोक्ष में अपनी हौसला अफजाई मानते हैं. दंत निपोरी की सभी धारायें प्राय: सभी को कंठस्थ हैं. पेंच की बातें वे अवसर जानकर और चासनी में लपेटकर प्रस्तुत करते हैं. मुँहदेखी पंचायत और ठकुर-सुहाती की परम्परा वहाँ अब बचपने से निकलकर यौवनावस्था को प्राप्त हो रही है.
वे कुछ बाँच रहे हैं, सभी उनके मुख को जाँच रहे हैं. उनके मुख से शब्द निकले नहीं कि बाकी उसे झेल लेते हैं. 'जी सर', 'ठीक है', 'अच्छी बात है', 'बेहतर है', 'हो जायेगा', 'देख लूँगा', 'मैं करता हूँ', 'करवाता हूँ' जैसे वाक्य वहाँ की दीवारों पर लिखे हुए हैं, जिन्हें सिर्फ बाकी के पढ़ पाते हैं. दरबारी पढ़ इसलिए पाते हैं, क्योंकि वे इन्हें सुनना चाहते हैं. 'ना न निकले' की ध्वनि वहाँ की हवा की शीतलता में घुलकर एकामेक हो गयी है और बाकियों पर उसका नींमअसर बराबर बना रहता है. 'हें-हें' का पहला दौर उपदेशात्मक होता है और बाकी वात्सल्यभाव से 'हें-हें' करते हैं. इस दौर का अंत चाय रूपी चरणामृत बंटन से होता है. जिन्हें चरणामृत मिला वे तृप्त और जिन्हें नहीं मिला वेर् ईष्या से लहालोट होते हैं.
वे जब मज़े के मूड़ में होते हैं तो मर्जी को उजागर नहीं करते. बाकी के तब उनकी छाप-तिलक टटोलने लगते हैं. उनकी मर्जी अन्धों का हाथी हो जाया करती है और वे मज़े-से उसकी सवारी गाँठते हैं. उनके कक्ष की फिजा समतामूलक है और समानता का छल-छन्द वहाँ अपने आप महसूसने लगता है. उनके मुख से निकले वाक्य वहाँ का संविधान हो जाता है.
चायरूपी चरणामृत पीकर जब मैं वहाँ से निकला लगा अमीवा में बदल गया हूँ.
Friday, September 26, 2008
रुटीन
हरेक अपने रुटीन का आदी होता है. यह बदलते ही छटपटाहट होती है. एक रुटीन के छूटते ही दूसरे को जमाने का प्रयास शुरू हो जाता है. लगातार एक जैसे काम नीरसता पैदा करते हैं और जोश में उन्हें बदलने की झोंक उठती है.
एक बार जंगल में जानवरों की सभा हुई. सभी ने तय किया कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिध्द अधिकार है सो हमारे भाईबंद जो आदमियों द्वारा बंधक बनाये या पाले गए हैं, उन्हें छुड़ाना चाहिए. क्राँति के सूत्रपात के तहत एक-एक करके सभी पालतू जानवरों को छुड़ाने का उपक्रम आरंभ हुआ. अंत में तेली के यहाँ कोल्हू के बैल के पास पहुँचे और उसे स्वतंत्रता के गीत सुनाये गए. कहा गया कि स्वतंत्रता हर जीव का जन्मसिध्द अधिकार है. बैल औंचक देखता रहा और बोला- इससे क्या फायदा होगा? सब बोले- तुम आजाद हो जाओगे. अपनी मर्जी से घूम फिर सकोगे और अपनी मर्जी से खा-पी सकोगे. बैल को बात कुछ समझ नहीं आई, लेकिन सभी का आग्रह था सो वह भी स्वतंत्र होकर जंगल में पहुँच गया. यहाँ उसके साथ सब कुछ नया और रोमांचक था. चारों ओर हरी-भरी घास थी. पीने को झरनों का स्वच्छ पानी था. आराम करने को पेड़ों की छाँव थी. खाओ-पिओ और आराम करो. उसने भरपेट खाया और आराम करते खाए हुए को पगुराया. एक झपकी भी ली.
और इस तरह कई दिन गुजर गए. खा लिए, पी लिए और मौज उड़ा ली, लेकिन जल्दी ही लीक पर चलने का सनातन अभ्यास जोर मारने लगा और बिना काम के वह बोर होने लगा. अब क्या करूँ नामक सवाल उसके दिमाग में बार-बार खड़ा हो रहा था. जंगल में बैल को करने लायक कुछ था भी नहीं. ज्यों-ज्यों वह दिमाग पर जोर डाले उसकी बेचैनी बढ़ने लगती. वह सोचने लगा और निष्कर्ष निकाला कि स्वतंत्रता का क्या यही मतलब है. अगर यह ऐसी ही है तो यह बड़ी कठिन है. खा-पीकर आराम करो और करने को कुछ नहीं. कितने दिनों तक यह सब चलता रहेगा. बैल से यह नयी स्वतंत्रता हजम नहीं हुई और वह बेचैनी में पड़ गया और अंतत: एक दिन सुबह तेली के दरवाजे पर खड़ा हो गया.
तेली ने बैल को देखा तो बोला- क्यों भई, क्या हुआ तुम्हारी स्वतंत्रता का. बैल मुँह लटकाए रहा और कोल्हू के पास जाकर खड़ा हो गया. तेली ने उसे फिर छेड़ा- बोलो भाई अपनी स्वतंत्रता के बारे में. बैल मरी आवाज में बोला- खाया-पिया और आराम किया. पर वहाँ करने को कुछ था नहीं सो ऐसी स्वतंत्रता किस काम की. मुझे बड़ी बेचैनी हो रही थी. लगा इससे अच्छा तो अपना पुराना काम ही था. खाने-पीने को कम मिलता था. डाँट अलग पड़ती थी, लेकिन रोजनदारी का काम तय था. दिमाग पर कोई जोर नहीं डालना पड़ता था. वहाँ तो दिमाग पर भारी जोर डाला पर करने लायक कुछ सूझा ही नहीं सो वापस आ गया.
एक बार जंगल में जानवरों की सभा हुई. सभी ने तय किया कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिध्द अधिकार है सो हमारे भाईबंद जो आदमियों द्वारा बंधक बनाये या पाले गए हैं, उन्हें छुड़ाना चाहिए. क्राँति के सूत्रपात के तहत एक-एक करके सभी पालतू जानवरों को छुड़ाने का उपक्रम आरंभ हुआ. अंत में तेली के यहाँ कोल्हू के बैल के पास पहुँचे और उसे स्वतंत्रता के गीत सुनाये गए. कहा गया कि स्वतंत्रता हर जीव का जन्मसिध्द अधिकार है. बैल औंचक देखता रहा और बोला- इससे क्या फायदा होगा? सब बोले- तुम आजाद हो जाओगे. अपनी मर्जी से घूम फिर सकोगे और अपनी मर्जी से खा-पी सकोगे. बैल को बात कुछ समझ नहीं आई, लेकिन सभी का आग्रह था सो वह भी स्वतंत्र होकर जंगल में पहुँच गया. यहाँ उसके साथ सब कुछ नया और रोमांचक था. चारों ओर हरी-भरी घास थी. पीने को झरनों का स्वच्छ पानी था. आराम करने को पेड़ों की छाँव थी. खाओ-पिओ और आराम करो. उसने भरपेट खाया और आराम करते खाए हुए को पगुराया. एक झपकी भी ली.
और इस तरह कई दिन गुजर गए. खा लिए, पी लिए और मौज उड़ा ली, लेकिन जल्दी ही लीक पर चलने का सनातन अभ्यास जोर मारने लगा और बिना काम के वह बोर होने लगा. अब क्या करूँ नामक सवाल उसके दिमाग में बार-बार खड़ा हो रहा था. जंगल में बैल को करने लायक कुछ था भी नहीं. ज्यों-ज्यों वह दिमाग पर जोर डाले उसकी बेचैनी बढ़ने लगती. वह सोचने लगा और निष्कर्ष निकाला कि स्वतंत्रता का क्या यही मतलब है. अगर यह ऐसी ही है तो यह बड़ी कठिन है. खा-पीकर आराम करो और करने को कुछ नहीं. कितने दिनों तक यह सब चलता रहेगा. बैल से यह नयी स्वतंत्रता हजम नहीं हुई और वह बेचैनी में पड़ गया और अंतत: एक दिन सुबह तेली के दरवाजे पर खड़ा हो गया.
तेली ने बैल को देखा तो बोला- क्यों भई, क्या हुआ तुम्हारी स्वतंत्रता का. बैल मुँह लटकाए रहा और कोल्हू के पास जाकर खड़ा हो गया. तेली ने उसे फिर छेड़ा- बोलो भाई अपनी स्वतंत्रता के बारे में. बैल मरी आवाज में बोला- खाया-पिया और आराम किया. पर वहाँ करने को कुछ था नहीं सो ऐसी स्वतंत्रता किस काम की. मुझे बड़ी बेचैनी हो रही थी. लगा इससे अच्छा तो अपना पुराना काम ही था. खाने-पीने को कम मिलता था. डाँट अलग पड़ती थी, लेकिन रोजनदारी का काम तय था. दिमाग पर कोई जोर नहीं डालना पड़ता था. वहाँ तो दिमाग पर भारी जोर डाला पर करने लायक कुछ सूझा ही नहीं सो वापस आ गया.
Sunday, September 21, 2008
बड़ा आदमी : एक खुशफहमी
प्रसिध्द फिल्मी डॉयलाग है- 'एक दिन में बड़ा आदमी बनूँगा'. जबकि असल ज़िंदगी में बहुत कम लोग इसे इस तरह और इन शब्दों में कहते हैं. यही कारण है कि अधिसंख्य लोग आम आदमी हैं. हालाँकि आम आदमी होना कोई बुराई नहीं है और ना ही बड़ा आदमी बनना कोई महान उपलब्धि. यह सिर्फ नजरिए का फर्क है जो इंसान को छोटा या बड़ा बनाता है. आप बदतर स्थितियों में बड़प्पन दिखा सकते हैं, जबकि सुख-सुविधा सम्पन्न वर्ग ओछी हरकतों के लिए कुख्यात हैं. बड़े आदमी होने की घटना बाहरी नहीं आंतरिक है. जैसे ही आप इस सपने को स्वीकार करते हैं - एक क्रांति-सी हो जाती है. चीजों के प्रति आपका नजरिया बदलने लगता है. समय का हरेक पल आपको कीमती महसूस होने लगता है.
अक्सर बड़ा आदमी होने से आशय आर्थिक तौर पर सुदृढ़ स्थिति वाले आदमी के तौर पर समझा जाता है. पद, पैसा और नाम वाले आदमी को भी बड़ा आदमी कहा जाता है. बड़े आदमी की यह बाहरी छवि है और प्राय: हरेक इसे हासिल करने के बारे में एक न एक बार सोचता जरूर है. आखिर सुख-सुविधाएं किसे बुरी लगती हैं. हरेक चाहता है - बंगला हो, गाड़ी हो, अर्दली हों, खरचने को पैसा हो, चार लोगों में नाम हो, अच्छे मददगार हों, सुंदर कपड़े हों. बड़े आदमी का बाहरी स्वरूप हरेक पाना चाहता है. कितने पा पाते हैं या पाने की दिशा में सोचकर रुक जाते हैं, यह दूसरी बात है.
स्थिर और जड़ समाज में यही बड़ी घटना समझी जाएगी कि लोग बड़े आदमी बनने की दिशा में सोचते तो हैं. सोचा हुआ ही किसी दिन व्यवहार में बदल जाता है. इच्छाशक्ति दृढ़ता प्रदान करती है. लगन भी उसी से उपजती है. जब एक बार किसी चीज की लगन लग जाती है तो उसे आदमी पाकर ही दम लेता है. इस हिसाब से बड़ा आदमी बनना बड़ा आसान काम है. सिर्फ लगन लगाने की जरूरत है और लगन बेचारी आसानी से लगती नहीं. अगर वह लग गई तो कभी न कभी इंसान बड़ा आदमी बन ही जाएगा. लगन ही उसे रास्ता सुझाएगी और वही रास्तों के काँटों को झेलने की ताकत भी पैदा करेगी. तब हँसते-हँसते इंसान सब मुश्किलों को स्वीकार करता जाता है और अंत में बड़ा आदमी बन जाता है.
अक्सर बड़ा आदमी होने से आशय आर्थिक तौर पर सुदृढ़ स्थिति वाले आदमी के तौर पर समझा जाता है. पद, पैसा और नाम वाले आदमी को भी बड़ा आदमी कहा जाता है. बड़े आदमी की यह बाहरी छवि है और प्राय: हरेक इसे हासिल करने के बारे में एक न एक बार सोचता जरूर है. आखिर सुख-सुविधाएं किसे बुरी लगती हैं. हरेक चाहता है - बंगला हो, गाड़ी हो, अर्दली हों, खरचने को पैसा हो, चार लोगों में नाम हो, अच्छे मददगार हों, सुंदर कपड़े हों. बड़े आदमी का बाहरी स्वरूप हरेक पाना चाहता है. कितने पा पाते हैं या पाने की दिशा में सोचकर रुक जाते हैं, यह दूसरी बात है.
स्थिर और जड़ समाज में यही बड़ी घटना समझी जाएगी कि लोग बड़े आदमी बनने की दिशा में सोचते तो हैं. सोचा हुआ ही किसी दिन व्यवहार में बदल जाता है. इच्छाशक्ति दृढ़ता प्रदान करती है. लगन भी उसी से उपजती है. जब एक बार किसी चीज की लगन लग जाती है तो उसे आदमी पाकर ही दम लेता है. इस हिसाब से बड़ा आदमी बनना बड़ा आसान काम है. सिर्फ लगन लगाने की जरूरत है और लगन बेचारी आसानी से लगती नहीं. अगर वह लग गई तो कभी न कभी इंसान बड़ा आदमी बन ही जाएगा. लगन ही उसे रास्ता सुझाएगी और वही रास्तों के काँटों को झेलने की ताकत भी पैदा करेगी. तब हँसते-हँसते इंसान सब मुश्किलों को स्वीकार करता जाता है और अंत में बड़ा आदमी बन जाता है.
Monday, September 15, 2008
सनातन भाष्य
ओ वाक्
दुनियावी सच और
इंसानी फितरतों की
साक्षी हो तुम.
मर्मांतक सच है यह
शरीर का तुम
आधा हिस्सा हो
प्रेरणा देती हो
पौरुष जागता है
तुम्हारे ही दर्प से
हिंस्र-पशु का उफनता है अहंकार
और अंतत: मिट्टी में मिलता है.
ओ देवी!
प्रलय का कापालिक
क्योंकर जगाती हो
अबूझ है यह पहेली
परत-दर-परत का मर्म
भीषण-घृणा और
पतंगे-सी प्रीति
क्योंकर महसूसता है
आधा शरीर.
भावनाओं का आवेग
हर बार तुम्हें रौंदता है
कभी प्यार-पगे शब्दों से
तो कभी कायान्तरण करके.
चंद्रमा की गतियों की मानिंद
बदलती है तुम्हारी धज
रात के सन्नाटे में और
ऍंधेरे में
दायें हाथ को बायाँ
अजनबी क्यों लगता है
स्तम्भन की कमतरी
पहले दिमाग में उतरती है
और आखिर में
नसों पर थिर
हो जाती है.
तुम बिफरती हो
करती हो घृणा
पर सावधान इतनी कि
उजागर नहीं होता कुछ
जैसे वमन की जुगुप्सा
किसी को भी
विचलित कर सकती है
ठीक वैसे ही तुम
भीतर से विचलित होती हो.
तुम अमरबेल-सी
रोज-रोज बढ़ती हो
और
छा जाती हो
वामन-विराट पर
कभी न कभी
तुम्हारी सर्वभच्क्ष इच्छा
प्रकट हो ही जाती है
और प्रकृति के प्रकोप
की माफिक
हिला देती हो
अवलम्बन को.
चराचर जगत की
स्वामिनी तुम
समर्पण करके ही
जीतता है पुरुष
पीता है मधु
चखता है मद
और पुन:
सृजन का चक्र
अवस्थित होता है
मूलाधार में.
दुनियावी सच और
इंसानी फितरतों की
साक्षी हो तुम.
मर्मांतक सच है यह
शरीर का तुम
आधा हिस्सा हो
प्रेरणा देती हो
पौरुष जागता है
तुम्हारे ही दर्प से
हिंस्र-पशु का उफनता है अहंकार
और अंतत: मिट्टी में मिलता है.
ओ देवी!
प्रलय का कापालिक
क्योंकर जगाती हो
अबूझ है यह पहेली
परत-दर-परत का मर्म
भीषण-घृणा और
पतंगे-सी प्रीति
क्योंकर महसूसता है
आधा शरीर.
भावनाओं का आवेग
हर बार तुम्हें रौंदता है
कभी प्यार-पगे शब्दों से
तो कभी कायान्तरण करके.
चंद्रमा की गतियों की मानिंद
बदलती है तुम्हारी धज
रात के सन्नाटे में और
ऍंधेरे में
दायें हाथ को बायाँ
अजनबी क्यों लगता है
स्तम्भन की कमतरी
पहले दिमाग में उतरती है
और आखिर में
नसों पर थिर
हो जाती है.
तुम बिफरती हो
करती हो घृणा
पर सावधान इतनी कि
उजागर नहीं होता कुछ
जैसे वमन की जुगुप्सा
किसी को भी
विचलित कर सकती है
ठीक वैसे ही तुम
भीतर से विचलित होती हो.
तुम अमरबेल-सी
रोज-रोज बढ़ती हो
और
छा जाती हो
वामन-विराट पर
कभी न कभी
तुम्हारी सर्वभच्क्ष इच्छा
प्रकट हो ही जाती है
और प्रकृति के प्रकोप
की माफिक
हिला देती हो
अवलम्बन को.
चराचर जगत की
स्वामिनी तुम
समर्पण करके ही
जीतता है पुरुष
पीता है मधु
चखता है मद
और पुन:
सृजन का चक्र
अवस्थित होता है
मूलाधार में.
Thursday, September 11, 2008
एक परीक्षा
वे जब कर रहे थे
तैयारी
एक परीक्षा देने की
सैकड़ों अनजान थे
ऐसी किसी परीक्षा की बाबत
जो बदल देती है
नज़रिया ज़िंदगी का.
ऑंखें तो वे ही होतीं
पर दृश्य के मायने
बदल जाते हैं
कान तो वैसे ही
सुनते हैं
पर अहसास
जुदा होता है
इक तंग घेरे से
बड़े घेरे में
धकेल देती है
एक परीक्षा
उनका उठना-बैठना
बोल-बरताव
क्या-कुछ नहीं
बदल जाता
ऑंखोंभर दृश्य
और
कानोंभर शब्द
अलहदा असर करते हैं
वे हो जाते हैं खास
और बाकी
आम रह जाते हैं.
तैयारी
एक परीक्षा देने की
सैकड़ों अनजान थे
ऐसी किसी परीक्षा की बाबत
जो बदल देती है
नज़रिया ज़िंदगी का.
ऑंखें तो वे ही होतीं
पर दृश्य के मायने
बदल जाते हैं
कान तो वैसे ही
सुनते हैं
पर अहसास
जुदा होता है
इक तंग घेरे से
बड़े घेरे में
धकेल देती है
एक परीक्षा
उनका उठना-बैठना
बोल-बरताव
क्या-कुछ नहीं
बदल जाता
ऑंखोंभर दृश्य
और
कानोंभर शब्द
अलहदा असर करते हैं
वे हो जाते हैं खास
और बाकी
आम रह जाते हैं.
Wednesday, September 3, 2008
नये जमाने की लड़की
पनीली ऑंखों में
गुजरा जमाना
अब भी कायम है
कुछ भूमिकाएँ भर बदलीं हैं
बाकी दुनिया यथावत है
पहले उसकी जरूरतें
कोई और पूरी करता था
अब कोई और करता है.
कीमत की उसे नहीं फिकर
कमतरी से है नफरत
नायाब से नायाबपना
उसे हमेशा ललचाता है.
एक दिन उसने पूछा--
पत्तियों के पीलेपन और
बालों के क्लिप के नीलेपन में
क्या संबंध हो सकता है
मैं नहीं समझ पाता
क्या बोलूँ.
हमने कहा--
तुम रूठ तो जाओ ज़रा
बला टले
मगर वह नहीं रूठी और टली भी नहीं
बोली-
उसे तो चाँद चाहिए
कहीं से भी लाकर दो
कैसे भी खरीदकर लाओ
किसी भी कीमत पर
कुछ न बचा हो तो
खुद को बेच आओ
मगर
चाँद लाओ.
मैंने पूछा--
मेरे बगैर करोगी क्या चाँद का
उसने कहा--
पहले लाओ तो
बाद में सोचेंगे.
वह पगली
नहीं जानती
इंसान का मैं-पना ही
उसकी ताकत है
जब वही झर जायेगा
चीज़ों के मायने बदल जायेंगे.
गुजरा जमाना
अब भी कायम है
कुछ भूमिकाएँ भर बदलीं हैं
बाकी दुनिया यथावत है
पहले उसकी जरूरतें
कोई और पूरी करता था
अब कोई और करता है.
कीमत की उसे नहीं फिकर
कमतरी से है नफरत
नायाब से नायाबपना
उसे हमेशा ललचाता है.
एक दिन उसने पूछा--
पत्तियों के पीलेपन और
बालों के क्लिप के नीलेपन में
क्या संबंध हो सकता है
मैं नहीं समझ पाता
क्या बोलूँ.
हमने कहा--
तुम रूठ तो जाओ ज़रा
बला टले
मगर वह नहीं रूठी और टली भी नहीं
बोली-
उसे तो चाँद चाहिए
कहीं से भी लाकर दो
कैसे भी खरीदकर लाओ
किसी भी कीमत पर
कुछ न बचा हो तो
खुद को बेच आओ
मगर
चाँद लाओ.
मैंने पूछा--
मेरे बगैर करोगी क्या चाँद का
उसने कहा--
पहले लाओ तो
बाद में सोचेंगे.
वह पगली
नहीं जानती
इंसान का मैं-पना ही
उसकी ताकत है
जब वही झर जायेगा
चीज़ों के मायने बदल जायेंगे.
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