Friday, September 26, 2008

अमीवा

सजता है उनका दरबार और उसमें होने को शामिल तरसते हैं सब. जैसे तरबूजे को देखकर तरबूजा बदलता है रंग, वैसे ही उनकी नज़रें-इनायतों की खातिर सभी लगे हैं अपना काया-कल्प करने में. वे कहते हैं हाँ तो सामूहिक स्वर हामी भरता है. उनकी ना को सभी अनुनासिक होकर स्वीकारते हैं. तिस पर मज़ा यह कि वे अपनी इस भेड़ियाधसान फौज को अच्छी तरह पहचानते हैं.

कभी जब होते हैं वे नाखुश तो कुछ के चेहरे गमगीन और कुछ भीतर से आनंदित होते हैं. होती है किसी की तारीफ तो सभी डेढ़ इंच की मुस्कान लिये इसे प्रत्यक्ष-परोक्ष में अपनी हौसला अफजाई मानते हैं. दंत निपोरी की सभी धारायें प्राय: सभी को कंठस्थ हैं. पेंच की बातें वे अवसर जानकर और चासनी में लपेटकर प्रस्तुत करते हैं. मुँहदेखी पंचायत और ठकुर-सुहाती की परम्परा वहाँ अब बचपने से निकलकर यौवनावस्था को प्राप्त हो रही है.

वे कुछ बाँच रहे हैं, सभी उनके मुख को जाँच रहे हैं. उनके मुख से शब्द निकले नहीं कि बाकी उसे झेल लेते हैं. 'जी सर', 'ठीक है', 'अच्छी बात है', 'बेहतर है', 'हो जायेगा', 'देख लूँगा', 'मैं करता हूँ', 'करवाता हूँ' जैसे वाक्य वहाँ की दीवारों पर लिखे हुए हैं, जिन्हें सिर्फ बाकी के पढ़ पाते हैं. दरबारी पढ़ इसलिए पाते हैं, क्योंकि वे इन्हें सुनना चाहते हैं. 'ना न निकले' की ध्वनि वहाँ की हवा की शीतलता में घुलकर एकामेक हो गयी है और बाकियों पर उसका नींमअसर बराबर बना रहता है. 'हें-हें' का पहला दौर उपदेशात्मक होता है और बाकी वात्सल्यभाव से 'हें-हें' करते हैं. इस दौर का अंत चाय रूपी चरणामृत बंटन से होता है. जिन्हें चरणामृत मिला वे तृप्त और जिन्हें नहीं मिला वेर् ईष्या से लहालोट होते हैं.

वे जब मज़े के मूड़ में होते हैं तो मर्जी को उजागर नहीं करते. बाकी के तब उनकी छाप-तिलक टटोलने लगते हैं. उनकी मर्जी अन्धों का हाथी हो जाया करती है और वे मज़े-से उसकी सवारी गाँठते हैं. उनके कक्ष की फिजा समतामूलक है और समानता का छल-छन्द वहाँ अपने आप महसूसने लगता है. उनके मुख से निकले वाक्य वहाँ का संविधान हो जाता है.

चायरूपी चरणामृत पीकर जब मैं वहाँ से निकला लगा अमीवा में बदल गया हूँ.

3 comments:

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा आपको पढ़ना!!

bhanu said...

it is a verry nice sytle ! congrets

राज भाटिय़ा said...

क्या बात है, बहुत ही अच्छा लगा आप को पढ कर.
धन्यवाद