पनीली ऑंखों में
गुजरा जमाना
अब भी कायम है
कुछ भूमिकाएँ भर बदलीं हैं
बाकी दुनिया यथावत है
पहले उसकी जरूरतें
कोई और पूरी करता था
अब कोई और करता है.
कीमत की उसे नहीं फिकर
कमतरी से है नफरत
नायाब से नायाबपना
उसे हमेशा ललचाता है.
एक दिन उसने पूछा--
पत्तियों के पीलेपन और
बालों के क्लिप के नीलेपन में
क्या संबंध हो सकता है
मैं नहीं समझ पाता
क्या बोलूँ.
हमने कहा--
तुम रूठ तो जाओ ज़रा
बला टले
मगर वह नहीं रूठी और टली भी नहीं
बोली-
उसे तो चाँद चाहिए
कहीं से भी लाकर दो
कैसे भी खरीदकर लाओ
किसी भी कीमत पर
कुछ न बचा हो तो
खुद को बेच आओ
मगर
चाँद लाओ.
मैंने पूछा--
मेरे बगैर करोगी क्या चाँद का
उसने कहा--
पहले लाओ तो
बाद में सोचेंगे.
वह पगली
नहीं जानती
इंसान का मैं-पना ही
उसकी ताकत है
जब वही झर जायेगा
चीज़ों के मायने बदल जायेंगे.
Wednesday, September 3, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
6 comments:
hut bhadia hai
wah shahab bhut badia hai
बहुत बेहतरीन रचना है।बधाई स्वीकारें।
इंसान का मैं-पना ही
उसकी ताकत है
जब वही झर जायेगा
चीज़ों के मायने बदल जायेंगे.
Uttam rachna. anand aagaya.
बढ़िया.
एक भोली सी, प्यारी लेकिन बहुत ही सच्ची कविता, बहुत कुछ कहती हे, आप की यह कविता,
धन्यवाद
Post a Comment