घर पहुँचते ही उसकी
शुरू होती है - राम कहानी
वही-वही बातें - वे ही दिक्कतें
आखिर एक जैसे शब्द सुनकर
कान भी तो पक ही जाते हैं.
पूछा मैंने- आज क्या हुआ?
बोली वह- कोहनी में दर्द है
सुनता हूँ और 'हूँ' भर कहता हूँ
मन उसके मर्ज गिनता है
कि गिनती दहाई तक पहुँच गई
और मर्ज खत्म नहीं होते.
करती है वह सवाल
बोलती है वह - सुनता हूँ मैं
दुनिया के सारे मर्ज
मुझे ही क्यों हैं?
मैं क्या जबाव दूँ
गिनवाती है वह तकलीफें
कमर में दर्द है
माथे में पीड़ा है
कंधों में टीस है
चेहरे पर झाइयाँ हैं
ऑंखों के नीचे काले गड्ढ़े हैं
बाल झड़ रहे हैं
देर तक सुनता हूँ मैं
कहता हूँ- ह्यूमोग्लोबिन कम हो रहा है
खाली नज़रों से देखती है वह मेरा चेहरा
बस!
इतनी लम्बी गिनती का
इतना-सा उत्तर.
वह बात बदलती है
कहती है-
पड़ौसन छरहरी हो रही है
इन दिनों
पता नहीं क्या खाती है
गाँव की गँवार
शहर की मेम
हुई जा रही है.
कहना चाहता हूँ
पर कहता नहीं
कि पड़ौसन
अपने में खोई रहती है
बच्चे उसके खेलते हैं
घर में किटी-पार्टी है
बच्चा बीमार है
वह पड़ौस में बैठी है
बच्चे का होम-वर्क नहीं हुआ
वह फेसियल कर रही है
बच्चा भूखा सो गया
वह नेल पॉलिस लगा रही है
पति बासे ब्रेड खा रहा है
वह फोन पर बतिया रही है
किससे? - पता नहीं
और इस तरह
वह खिली-खिली रहती है
और तुम
अपने को खरच रही हो
आहिस्ता-आहिस्ता
बच्चों पर
पति पर
घर-परिवार पर
सफाई पर
साज-सम्हाल पर
रिश्तेदारों पर
और उस पर
जो नहीं है हाथ में
और जो हाथ में है
वह खास नहीं.
कल जो आने वाला है
खो जाती हो उसमें
आज जो गुजर रहा है
वह ओझल है नज़रों से
मैं क्या कहूँ - बोलूँ?
सो 'हूँ' कहकर
चुप हो जाता हूँ.
Wednesday, August 20, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
6 comments:
बहुत ही सुन्दर पहलु आप ने पेश किये हे इस जिन्दगी के, ...
धन्यवाद
बहुत उम्दा, क्या बात है!
आदरणीय भाटिया जी,
आपका ब्ल़ॉग देखा. बहुत आनंद आया. खासकर कहावत.
आपने मेरी कविता पर अपनी टिप्पणी दी और वहीं से मैंने आपका ब्लॉग पाया. मैं प्रवासी भारतीयों के लिए - गर्भनाल - नामक ई-पत्रिका पीडीएफ फॉर्मेट में निकालता हूं. इस पत्रिका के अब तक २१ अंक निकल चुके हैं. अगर आपको उचित लगे तो इसमें रचनात्मक योगदान दें. पत्रिका ईमेल के जरिये भेजी जाती है. कृपया अपना ईमेल दें ताकि पत्रिका भेजी जा सके.
सादर
आत्माराम
Atmaramji,
Aap ki kavita dekhi. Acchi lagi. Zindagi ka ye andaaz behadd pasand aaya. Dhanyavaad!
अच्छी दिनचर्या और अच्छी बयानी- भई, दिन है तो दुख-दर्द चरा ही करेंगे ना!
तुम अपने को खरच रही हो
आहिस्ता-आहिस्ता
बच्चों पर, पति पर, घर-परिवार पर
सफाई पर, साज-सम्हाल पर, रिश्तेदारों पर
वाह साब क्या बात कह डाली अपने, रोज हर रोज इसे देखते हैं करीब से पर हम आदमी हैं ख़ुदग़र्ज़ जो कर देते है - 'हूँ' सिर्फ
आत्माराम जी, ब्लॉग ने तो मानो हमलोगों को कितना नज़दीक ला दिया है। गुगल्स को धन्यवाद तो करना ही पड़ेगा जनाब। -शम्भु चौधरी
Post a Comment