ओ वाक्
दुनियावी सच और
इंसानी फितरतों की
साक्षी हो तुम.
मर्मांतक सच है यह
शरीर का तुम
आधा हिस्सा हो
प्रेरणा देती हो
पौरुष जागता है
तुम्हारे ही दर्प से
हिंस्र-पशु का उफनता है अहंकार
और अंतत: मिट्टी में मिलता है.
ओ देवी!
प्रलय का कापालिक
क्योंकर जगाती हो
अबूझ है यह पहेली
परत-दर-परत का मर्म
भीषण-घृणा और
पतंगे-सी प्रीति
क्योंकर महसूसता है
आधा शरीर.
भावनाओं का आवेग
हर बार तुम्हें रौंदता है
कभी प्यार-पगे शब्दों से
तो कभी कायान्तरण करके.
चंद्रमा की गतियों की मानिंद
बदलती है तुम्हारी धज
रात के सन्नाटे में और
ऍंधेरे में
दायें हाथ को बायाँ
अजनबी क्यों लगता है
स्तम्भन की कमतरी
पहले दिमाग में उतरती है
और आखिर में
नसों पर थिर
हो जाती है.
तुम बिफरती हो
करती हो घृणा
पर सावधान इतनी कि
उजागर नहीं होता कुछ
जैसे वमन की जुगुप्सा
किसी को भी
विचलित कर सकती है
ठीक वैसे ही तुम
भीतर से विचलित होती हो.
तुम अमरबेल-सी
रोज-रोज बढ़ती हो
और
छा जाती हो
वामन-विराट पर
कभी न कभी
तुम्हारी सर्वभच्क्ष इच्छा
प्रकट हो ही जाती है
और प्रकृति के प्रकोप
की माफिक
हिला देती हो
अवलम्बन को.
चराचर जगत की
स्वामिनी तुम
समर्पण करके ही
जीतता है पुरुष
पीता है मधु
चखता है मद
और पुन:
सृजन का चक्र
अवस्थित होता है
मूलाधार में.
Monday, September 15, 2008
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3 comments:
चराचर जगत की
स्वामिनी तुम
समर्पण करके ही
जीतता है पुरुष
पीता है मधु
चखता है मद
और पुन:
सृजन का चक्र
अवस्थित होता है
मूलाधार में.
क्या बात हे ,पुरी कविता ही बहुत सुन्दर हे.
धन्यवाद
बहुत सुन्दर!!
:) nice, keep it up
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