Monday, July 21, 2008

बढ़ती उमर और बचपन की यादें

उमर बढ़ने के साथ बचपने की स्मृतियाँ मोहक, सपने-जैसी और अच्छी लगने लगतीं हैं. बचपन तो दोबारा लौटता नहीं लिहाजा उन स्मृतियों को आदमी खुली ऑंखों के सपने के तौर पर देखता है.

खाँच, नदी, महुए और भाई
खाँच (खेत) की बिरोल के एक तरफ हम चारों भाई गङ्ढे खोद रहे हैं. मैं सबसे बड़ा हूँ. सबसे छोटा मुझसे दस साल छोटा है. वह हमें काम करते देख रहा है, बल्कि निगरानी कर रहा है कि काम अच्छे-से हो रहा है या नहीं. बिरोल के दोनों तरफ पौधे रोपे जायेंगे, इसलिए हम गङ्ढे खोद रहे हैं. पौधे रोप कर हम प्रकृति का ऋण चुका सकते हैं, इसलिए हरेक इंसान को जीवन में कम से कम एक पौधा रोपना चाहिए, ऐसा पिताजी का कहना था. पिताजी के इस कहे को हमें मानना ही था. हमने ज्यों ही उसे माना, यह बात सच लगने लगी. गङ्ढे खोदते हुए पौधों का पेड़ बनना हम महसूस कर रहे थे. बच्चे होने के बड़े फायदे हैं. आप शुरूआत करते हुए उसका मध्य और अन्त आराम से महसूस कर सकते हैं.
कुएँ पर रखा बिजली का पम्प तेजी से चल रहा है. बिरोल में पानी का बहाव इतना तेज़ है कि वह दोनों तरफ उबल रहा है. सुबह का सूरज अभी थोड़ी ऊँचाई पर ही पहुँचा है. खेतों में आधा हाथ खड़ी फसल पर ओंस की बूँदें साफ चमक रही हैं. हल्की धुँध की परत खेतों पर सफेद चादर-सी बिछी दिखती है. हवा की नमी शरीर में फुरफुरी पैदा कर रही है, लेकिन हमारे शरीर पर केवल लंगोट कसे हुए हैं. तेल मालिश के कारण हमारे शरीर चमक रहे हैं. गङ्ढों से मिट्टी निकालने के कारण हमारे माथों पर पसीना छलक आया है. कुदाली से हम खोदते हैं और फावड़े से मिट्टी को गङ्ढे के चारों तरफ फैलाते जाते हैं.
काम करते हुए हमारी ऑंखों में परिणाम के सपने तैर रहे हैं और इस वज़ह से हमारी गति सामान्य से ज्यादा है. हम जैसे उमंग की लहर पर सवार हैं. हम अभी गङ्ढे ही खोद रहे हैं, लेकिन हमें महसूस होता है कि इन गङ्ढों में बड़े और हरे-भरे पेड़ खड़े हैं. इन पेड़ों की घनी छाया हमें गरमाहट का अहसास कराती है, मानो शीत-लहर से पेड़ हमारी रक्षा कर रहे हैं. एीक वैसे ही जैसे तपती धूप में पेड़ों की छाया हमें एण्डक देती है. हम अभी बच्चे ही हैं. जल्दी ही जोश में आ जाते हैं. शरीर हमारे ज़रूर छोटे हैं, लेकिन जैसे ऑंखों में पूरा आसमान समा जाता है वैसे ही हमारे कोमल मन में भविष्य की इन्द्रधनुषी कल्पनाएँ आकार लेने लगती हैं.
हमें अपने खेतों से मोह है. खेत के बगल में बहने वाली छोटी-सी नदी हमें प्यारी और रिश्तेदारी महसूस करवाती है. खाँच के महुए के पेड़ हमें गए-गुजरे बुजुर्गों जैसे लगते हैं. महुए के पेड़ों के नामों तक में प्यार छुपा है- मिएवा, गुल्ला, टेड़ा. हमने सालों महुए चखे और बीने हैं, गुलेंदे बीने हैं और उनसे निकली गुली से कंचों वाला खेल खेला है.

पाठशाला और हमारे हीरो हमारे पिता
पाठशाला (एक और खेत) के पुराने, घने आम पर चढ़कर हम सभी मानो पक्षियों में बदल जाते हैं. आम की ऊँची डालों पर चढ़कर हम, यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ की कल्पना करने लगते. आम की नीची डालों पर छुपन-छुपा खेलते घण्टों गुजार देते. बेरियों के बेर बीनते हुए आपस में संस्कृत के श्लोकों को दोहराते. बेरियों के नाम हमने उनकी मिठास, खटास और तीखेपन के हिसाब से रखे हुए थे.
पाठशाला पर अमरूद के गिने-चुने दो पेड़ थे. एक था सफेदा, जिसका गूदा सफेद और बेहद मीठा होता था. इस पेड़ में हर साल फल नहीं लगते थे. लेकिन जब भी लगते टूट कर लगते. दूसरा अमरूद का पेड़ सदाबहार था. सदाबहार इन अर्थों में कि उसमें तकरीबन साल भर छोटे-बड़े अमरूद लगे दिखायी देते रहते थे. यह औसत दर्जे का अमरूद था. पाएशाला पर एक नींबू का झाड़ भी था. रहट वाले कुएँ के पास. इस झाड़ के नींबू शायद ही हमारे हाथ कभी आए हों.
पाठशाला पर एक छोटा मगर कलमी आम का नया-नया पेड़ था. हमारे दिनों में यह गुल्ला कहलाता था. इसमें फल आना अभी शुरू नहीं हुए थे. आम के इस पौधे को लगाने का दावा दो लोग करते थे. दावा एोंकने वाला एक तो दाऊ था. दूसरे सीताराम भाई साहब भी यह कहते सुने गए कि गुल्ला उन्होंने लगाया है.
पाठशाला में सागौन के पेड़ों का छोटा-सा बारोंदा था. एक बार हमारे पिता ने सागौन के इन पेड़ों को गिनकर, उन पर नम्बर डालने का काम मुझे सौंपा था. नम्बर तो खैर मैं नहीं डाल पाया लेकिन इन पेड़ों की गिनती मैंने जरूर की थी. छोटे-बड़े कुल मिलाकर यह तीस से चालीस पेड़ थे.
पाठशाला तब हमारी थी. हमारी यानी हम सब की. हम सब की माने हमारे दादाजी की, जिन्होंने इसे बनाया. हमारे पिताजी सहित उनके तीनों भाईयों की. हमारे ताऊ-चाचा के लड़कों और हम चारों भाईयों की. ऐसी हमारी पाएशाला में एक तेंदू का पेड़ भी था जो बहुत ऊँचा और बहुत कम फल देने वाला था, लेकिन उसके फल बहुत मीठे थे.
पाठशाला में अंग्रेजी इमली के भी दो-चार पेड़ थे. हमें नहीं पता कि उनको किस ने लगाया. अलबत्ता सीताफल के ढेरों पेड़ पाठशाला में यहां-वहां मौजूद थे. पाएशाल में पीपल के दो बड़े पेड़ और नीम के दर्जनों पेड़ मौजूद थे.
असल में हमारे पिता पेड़ों को बहुत प्यार करते हैं और सच तो यह है कि वे प्रकृति-मात्र को ही प्यार करते हैं. जब हमारे परिवार में बंटवारा होने वाला था तो हमारे एक रिश्तेदार ने पाएशाला के इन पेड़ों को कटवाकर मोटी रकम बनाने का सुझाव दिया. उनके विचारों को सुनकर पिताजी उदास हो गये. वे बोले- अपने हाथ-पांव भी भला कोई काटकर बेचता है?
पिताजी हमारी दैनंदिन गतिविधियों में तक आदर्शवादी हैं. वे हमें श्रम की महत्ता लगातार बताते रहते हैं. बराबरी का संस्कार हमें उठते-बैठते सिखाया गया. बड़े-छोटे की व्यर्थता और सह-अस्तित्व की व्यापकता हमें घोलकर पिलायी गयी.
पिताजी सिर्फ हमारे पिता ही नहीं, वे हमारे हीरो भी हैं. हम उन जैसा होना चाहते हैं. उनके बताए कामों पर हम लगन से जुट जाते हैं. हम सभी में यह होड़ है कि काम को पहले कौन पूरा करता है और शाबासी का हकदार बनता है. लेकिन पिता हमारे अबूझ किस्म के हैं. वे शाबासी भी बहुत गम्भीर किस्म की देते हैं. उनकी शाबासी भी आदर्शतम किस्म की होती है. जीवन जीने के श्रेष्ए मापदण्ड वह हमारे व्यवहार में देखना चाहते हैं. उनके विचारों में मानवीय दुर्बलता दिखायी नहीं देती. वे हमें सहज और दृढ़ इंसान बनाना चाहते हैं.
पिताजी हममें काम को बेहतर से बेहतर करने का उत्साह भरते हैं. वे हमें प्राणी-मात्र से, सम्पूर्ण प्रकृति से प्रेम करना सिखाते हैं. चींटी को मारने से भी पाप लगता है, ऐसे विचारों के बीज उन्होंने हमारे कोमल मनों में बहुत धीरज और जतन से बोए हैं. उन्होंने हमें हर काम को सहजता और खेल-खेल में करना सिखाया है। हमें पता ही नहीं चला कि कब खेलते हुए हम पढ़ने लगते और कब पढ़ते हुए हम खेलने लगते. उन्होंने हमें निर्भय रहना सिखाया है, क्योंकि उन्होंने हमें गलत कामों से डरना सिखाया है. उन्होंने हमें हमेशा अपने में गलती खोजने की सीख दी है, क्योंकि उनका मानना है कि मनुष्य की सारी तरक्की का इतिहास गलतियों के पन्नों पर लिखा गया है.

हम भी पिता हैं
हम भी पिता बन गए हैं. पर एक सवाल है जो लगातार हमारा पीछा कर रहा है कि क्या हम आदर्श पिता हैं? क्या हमारे अपने बच्चों की नजर में हम हीरो जैसे हैं. क्या हमारे बच्चे भी हमें उस सम्मान की नज़र से देखेंगे, जैसे कि हम अपने पिता को देखते हैं?
प्रश्न है कि हम उन्हें क्या सिखा रहे हैं? उन्हें क्या दे रहे हैं? देने को हमारे पास बहुत कुछ है सिवाय समय के. जिस समय-समाज में हम हैं उसके लिहाज़ से बच्चों की सारी ज़रूरतों को हमने पूरा किया है. अच्छा खाना, अच्छे कपड़े, अच्छा घर, अच्छी सुविधाएँ, लेकिन क्या एक पिता की हैसियत से बच्चों के लिए इतना सब करना ही पर्याप्त है? वह नैतिक साहस और संस्कार जो मैंने अपने पिता में देखा और सहज ही पाया है, अपने बच्चों को वैसे संस्कार क्या मैं दे पा रहा हूँ?

कुनेन जैसे सच
गलत को गलत कहने और स्वीकारने का साहस, अपनी गलतियाँ खोजकर उन्हें सुधारने और दूसरों को बताने का साहस, पैसे की सुचिता यानी ईमानदार तरीकों से कमाये गये धन की महत्ता, भौतिक सुख-सुविधाओं की ओर कभी न समाप्त होने वाली लार-टपकाऊ लिप्सा से वितृष्णा. जिसे आज की दुनिया में बहुत व्यवहारिक होना कहते हैं, उस शातिर दोगलेपन से बचाव.

उपसंहार
ऐसा कहा गया है कि अनुभव पर आशा की विजय होती है.

3 comments:

इरफ़ान said...

आपका ब्लॉग देखा, लगता है कि साझा करने को आपके पास बहुत कुछ है और अभिव्यक्ति की भाषा भी. यह सोचकर आगे बढ गया कि समय निकालकर ठीक से पढूँगा इसलिये एक सरसरी निगाह ही डाल पाया हूँ . आम तौर पर यह सुना जाता है कि ब्लॉग लेखन में स्थान की किफ़ायत ज़रूरी है क्यों कि लम्बे लेख पढने का धैर्य कम होता जा रहा है.

Sajeev said...

नए ब्लॉग की बधाई, बहुत सुंदर और सराहनीय प्रयास है आपका, हिन्दी चिट्टा जगत में आपका स्वागत है, सक्रिय लेखन कर हिन्दी को समृद्ध करें, शुभकामनाओ सहित
आपका मित्र -

सजीव सारथी
09871123997
www.podcast.hindyugm.com

Dr. Sudha Om Dhingra said...

आप ने मुझे मेरे बचपन की यादें ताज़ा करवा दीं.
मैं भी कई बार ऐसा सोचती हूँ कि क्या मैं अपने
बच्चे को भौतिक सुखों के अतिरिक्त वह सब दे पाऊँगी
जो मुझे मेरे माँ-बाप से मिला है. समय और परवेश का अन्तर हो सकता है, संस्कारों का नहीं. आशा पर दुनिया चलती है.
http://www.vibhom.com/blog.html