Thursday, January 21, 2010

साहित्यिक सुख

देश में शादियों का मौसम चरम पर पहुँचकर गुजरा है. इस दौरान तरह-तरह की पातियों और कार्डों से बाजार भरे पड़े थे. इस सुखद मौके के बहाने लोगों ने अपनी कलात्मक और साहित्यिक अभिरुचि को जाँचा-परखा और अभिव्यक्त किया. एक ज़माना वह भी था जब हल्दी-चावल छींट कर नेह-निमंत्रण हाथ से लिखे जाते थे और आम लोगों को खबास और खास लोगों को खुद अपने हाथों सौंपने में फक्र महसूस किया जाता था.

अब नये ज़माने का चलन प्रदर्शनकारी है और इस मौके पर लोग लगे हाथों साहित्य-सृजन का सुख भी लूट लेना चाहते हैं. कार्डों के साहित्यिक पहलू की विवेचना ज्ञानी करेंगे, फिलहाल कार्डों पर छपी इबारत के कुछ नमूने पेश हैं :

- सुख समृध्दि का होगा अर्जन, जब होगा तेल श्रीगणेश पूजन.

- बड़ी अनूठी रीत है, प्यारी-सी सौगात, मंडप में होंगे खड़े ले मामाश्री भात.

- सात फेरे सात वचन होंगे जब स्वीकार, परिपूर्ण होगा तभी पाणिग्रहण संस्कार.

- जब जायेगी घर ऑंगन से बेटी की डोली, आप हम सबकी होंगी ऑंखें गीली.

- हल्दी है चन्दन है रिश्तों का बंधन है, हमारी दीदी की शादी में आप सभी का अभिनंदन है.

- हमें इंतज़ार है आपके आने का, स्मरणीय हैं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, साथ होंगे आप और हम, साक्षी होंगे धरा, अम्बर, अरुण, वरुण एवं अग्नि, सुअवसर होगा परिणय सूत्र के अटूट बन्धन का.

- आपका शुभागमन एवं स्नेहभरा आशीर्वाद, नव-जीवन में प्रविष्ट होने वाले, इन पथिकों के लिए अमूल्य उपहार होगा, हम आपके आगमन के लिए आतुर रहेंगे.

- दुनिया का नियम है, हमने भी निभाया है, अपनी बिटिया को आज दुल्हन बनाया है.

- वर्षों से रखा था, जिस संभालकर, दे रहे हैं उसे हृदय से निकालकर.

- खुशी है, थोड़ा दर्द हो रहा है, बेटी होती है पराई, आज अहसास हो रहा है.

- परिणय सूत्र बंधन के आनंद उत्सव पर हम सत्कार की थाली में, चन्दन-सा आदर, कुमकुम-सी आस्था, पुष्प-सा प्रेम, अक्षत और समर्पण लिए आपके स्वागत हेतु प्रतीक्षारत हैं.

- सोचो मत आना है, रिश्तों को निभाना है, मेरे चाचा की शादी में महफिल को खुशियों से सजाना है.

- अनुरोध : कृपया समयाभाव के कारण निमंत्रण पत्र को ही व्यक्तिगत उपस्थिति मानकर पधारने की कृपा करें.

गाँव देहात की एक पुरानी कहावत है - एक थे राम एक रावणना, उननें उनकी नारि हरी, उनने उनको नाश करो, बात थी केवल इतनी सी और तुलसी लिख गए पोथन्ना.

यानी सरस तरीके से देशज समाज बड़ी और मूल्यवान बातें भी दो लाइन में समेट लेता है. लेकिन आज का तथाकथित मध्यवर्ग! उसकी थाह पाना बहुत मुश्किल है. उसका कोई भरोसा नहीं कि वह कब और कहाँ आधुनिक होकर पुरानी परम्पराओं को कूड़ा बताये या फिर उन्हें थाती से लगाये. वे शादी के कार्ड बनाते समय साहित्यिक हो जाते हैं और ऐसा मानते हैं कि जो कार्ड जितने भारी और कठिन शब्दों से भरा-पूरा होगा - उसकी उतनी ही धाक जमेगी. हालाँकि यह खुशफहमी भर होती है, क्योंकि सिवाय तारीखें देखने के शायद ही कार्ड को कोई गंभरता से पढ़ता होगा.

कड़वा सच यह भी है कि हिन्दी समाज में पढ़ने की आदत लगातार खत्म होती जा रही है. अखबार के पन्नों को पढ़ लेना ही बड़ी बात समझी जाने लगी है. गुजरे जमाने में कम से कम कथा-पोथी और सत्संग के बहाने शब्दों की ताकत और महिमा कायम थी, लेकिन अब न शब्दों में वह असर पैदा होता है और न वैसे सरोकार बचे हैं. बस एक तरह का अर्थहीन शब्दों का सिलसिला चल पड़ा है.

3 comments:

sanjay vyas said...

एक नए सिरे से सोचा है इस पहलु पर आपने.लगभग अनछुआ सा था ये अब तक.

दिगम्बर नासवा said...

आपकी पोस्ट सोचने को मजबूर करती है .........

''अपनी माटी'' वेबपत्रिका सम्पादन मंडल said...

atmaraam ji
aapko apni maati ne aik mail bhejaa hai. follow up karke apni post apni maati par bh e j n e h e t u mail me bhejaa code blog me paste kariegaa.

regards
माणिक
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