पिछले दिनों अथर्ववेद पर प्रख्यात विद्वान करपात्रीजी की टीका पढ़ रहा था। हालाँकि इस टीका में उन्होंने कहीं भी ऐसा दावा नहीं किया है कि अथर्ववेद की उनकी यह मौलिक व्याख्या है। टीका की भूमिका में - कवि न होऊँ, नहिं चतुर कहावउँ - वाली विनम्रता ही उजागर हो पाती है। खैर.
हरेक के भीतरर् कत्ता (करने वाला) और दृष्टा (देखने वाला या तटस्थ या वह जिसे गाँधीजी आत्मा की आवाज़ कहते हैं) का द्वंद्व लगातार चलता रहता है. कुछ तथ्य हैं जिन पर गौर करें :
जीवन में उच्च भौतिक उपलब्धियों को हासिल करने के बाद अचानक व्यर्थताबोध का भाव प्रबल हो उठता है, लगता है कि नाहक ही इसकी खातिर इतना श्रम, इतने संसाधन खर्च किये गये.
दूसरी ओर विकट बुरी दशा में, जब कोई वश नहीं चलता, अचानक से हम शांत हो जाते हैं - सारा विरोध और कुछ कर गुजरने की सारी बेचैनी गायब हो जाती है, कि जैसे हम परिस्थिति के हाथों खुद को छोड़ देते हैं. कुल निष्कर्ष यह कि भीतरी दुनिया में दो का द्वंद्व लगातार जारी है। कभी एक सक्रिय होकर दूसरे पर भारी पड़ता है तो कभी दूसरा पहले पर.
अथर्ववेद का ऋषि कहता है : मैं अमृतमयी वाणी बोलूं, मेरी जिह्वा के अग्रभाग में माधुर्य हो, जिह्वा के मूल में माधुर्य का स्त्रोत हो, मेरे कर्म, बुध्दि, विचार और चित मधुसिक्त हों. यह ऋषि द्वारा माधुर्य प्राप्ति के लिए ईश्वर से की गई प्रार्थना है. माधुर्य ही इस सृष्टि में आनंद लोक के निर्माण में उत्प्रेरक का कार्य कर सकता है. वास्तव में आनंद का उद्गम स्थल तो हमारा हृदय ही है, परंतु जीवन की मधुरता आनंद के इस उद्रेक को बढ़ाती है.
सुख से आगे की स्थिति है आनंद. सुख की सीमाएं हैं, परंतु आनंद किसी सीमा बंधन में नहीं बंधता. आनंद अपार होता है. प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा, सौहार्द और सहिष्णुता आनंद को बढ़ाने वाली प्रवृत्तियां हैं. इसी प्रकारर् ईष्या, द्वेष, घृणा और इनसे उत्पन्न होने वाली उत्तेजना, आवेश और क्रोध हमारे भीतर आनंद के कलश को खाली कर देते हैं.
करपात्री जी आनंद की व्याख्या करते हुए लिखते हैं :
वास्तव में आनंद, जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है.र् ईष्या के दो स्वरूप माने गए हैं. यदिर् ईष्या स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता को जन्म देती है और मानव के उत्थान में सहायक होती है, तो इसेर् ईष्या का सकारात्मक स्वरूप कहा जाएगा. परंतु यदिर् ईष्या दूसरे की उन्नति से हमारे भीतर द्वेष उत्पन्न करती है तो यहर् ईष्या का नकारात्मक स्वरूप कहलाएगा. ईष्या से ही द्वेष की भी उत्पत्ति होती है और द्वेष दूसरे को केवल हानि ही नहीं पहुंचाता बल्कि हमारे आनंद को भी दग्ध करता है. दूसरे को हानि पहुंचाने पर व्यक्ति स्वयं भी मलिनता से ग्रस्त रहता है, ठीक उसी प्रकार जैसे क्रिया की प्रतिक्रिया होना अवश्यंभावी है. दुर्भावनाएं,र् ईष्या और द्वेष की पूरक हैं और हमारे भीतर आवेश और क्रोध का संचार करती हैं. कहा गया है किर् ईष्यालु का अन्त:करण मृतप्राय हो जाता है. आवेश और उत्तेजना, व्यक्ति के अन्तस को अनुभूतियों से रिक्त कर देती हैं और वह व्यक्ति क्रोध और प्रतिशोध को ही जीवन का ध्येय बना लेता है.
Wednesday, August 12, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
13 comments:
आत्मा राम जी, आपने बेहद सुंदरता से प्रस्तुत किया है मैंने अभी इसको एक बार ही पढा है, वैसे आप जो भी लिखते हैं वो मुझे तो बहुत पसंद आता है.
बहुत उपयोगी प्रस्तुति, धन्यवाद!
Achcha laga aapke blog par aakar.Shubkamnyen.
आत्माराम जी आपने बहुत उपयोगी बात बाताई है |
कहा भी जाता है परम आनंद (परमानंद) ही इश्वर है | हम भी तो उसी परमानंद का अंश हैं | आम तौर पे हर मनुष्य आनंद ही चाहता है |
ये अलग बात है की आज के समय मैं सुख को आनंद मानने की भूल हम कर रहे हैं |
aajadi ki shubhkamnayen preshit hain .
Aap , Kishor ji , avinash ji aur kuch anya..
...blogging, 'sahityik' hua chahti hai.
Utkrisht aur ati satriya lekhan hetu badhai.
ungliyon main gine jaane wale mere chahete blog main aapko shamil karte hue accha lag raha hai.
pichli kavita aur uska mantavya/saar accha laga:
अब कि जब
परछाईं भी बताती है
पाँच-फुटा तो हो ही
पर अब तुम्हें
कह जाने के लिए
ताड़-सा कद चाहिए...
.रात को खामोशी से पढने जैसी पोस्ट है ..
बहुत उम्दा...बहुत बहुत बधाई....
बहुत उपयोगी सामग्री.
धन्यवाद.
बहुत खूबसूरती से आपने प्रस्तुत किया है! बहुत बढ़िया लगा! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई!
प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा, सौहार्द और सहिष्णुता आनंद को बढ़ाने वाली प्रवृत्तियां हैं. इसी प्रकारर् ईष्या, द्वेष, घृणा और इनसे उत्पन्न होने वाली उत्तेजना, आवेश और क्रोध हमारे भीतर आनंद के कलश को खाली कर देते हैं.
' कितनी सरलता से आपने मन की इन विकट स्थितियों से अवगत कराया है........जीवन का सत्य है जिसे हम अनदेखा कर देते हैं और समझ ही नहीं पाते.......आभार इस प्रस्तुती के लिए"
regards
बहुत ही उपयोगी, ज्ञानवर्धक और सुन्दर प्रस्तुति है. धन्यवाद!
महावीर शर्मा
behtreen aalekh .
irshyajnit vykti kbhi koi srjnatmak
kary nhi kar skta ye mera vyktigat anubhav hai .
aapka blog pdhkar aatmsantish mila
abhar.
Post a Comment