कह डालने से क्यों डरते हो?
क्यों स्थगित करते हो
आज को कल पर
तब कि जब
माँजते थे रकाबियाँ
गंदे और सड़े होटल में
और देखते थे ख्वाब
कि जब होऊँगा कदवान
कह जाऊँगा सब कुछ...
अब कि जब
परछाईं भी बताती है
पाँच-फुटा तो हो ही
पर अब तुम्हें
कह जाने के लिए
ताड़-सा कद चाहिए...
नहीं-नहीं कद तो बहाना है
असल में तुम कायर हो
और अपनी छवि से भयभीत हो...
अपनी छवि जो बसी है
तुम्हारी अपनी ऑंखों में
कह जाने से वह दरकेगी
वह दरक भी सकती है
इस संभावना मात्र से
तुम काँप उठते हो...
उबरो अपनी छवि के मायावी घेरे से
कल कि जब निश्चित ही
होगा तुम्हारा तिया-पाँचा
क्यों नहीं अपने हाथों
चीर डालते अपना हृदय...
क्यों नहीं फोड़ते वह ठीकरा
जिसमें भरी हैं
सड़कर बजबजातीं
मिठास-भरी पूर्व-स्मृतियाँ...
कि जैसे हगना-मूतना स्वाभाविक है
ठीक वैसे ही
भीतर भरी काली इच्छाएँ
उत्सर्जित होनी चाहिए...
और फिर पूरी संभावना है
कि उस गटर-गंगा में
मिल जाए एकाध मोती
जो किसी के तो क्या
शायद तुम्हारे ही काम आ जाए...
चेतो कि अपनी गढ़ी छवियों से
डरने वाले लोग
निश्चय ही मारे जाएँगे
और जिएँगे वे अनंतकाल तक
जो अपनी छवि को फिर-फिर
तोड़ेंगे और लगातार तोड़ते रहेंगे...
Sunday, August 2, 2009
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7 comments:
बहुत बढिया रचना है।बधाई।
कविताओं के एकालापी स्वर से भिन्न, कोरस से हटकर एक आवाज़.
सख्ती से अपनी बात कहती कविता.
बहुत दिनों बाद आपने पोस्ट किया है | पर देर आये दुरुस्त आये |
क्यों नहीं फोड़ते वह ठीकरा
जिसमें भरी हैं
सड़कर बजबजातीं
मिठास-भरी पूर्व-स्मृतियाँ...
वाह ... बहुत सुन्दर लिखा है | आपकी कल्पना शक्ती को दाद देता हूँ | लिखना जारी रखें |
आपने इंतजार बहुत करवाया है फिर भी फल तो मीठा ही है.
एक व्यापक फलक वाली कविता, बहुत सुन्दर !
अच्छी रचना है. अपकी ई-पत्रिका भी पढता हूं. भेजने के लिये धन्यवाद.
आत्मा राम जी,
भीड़ से हट कर है स्वर आप का.
खूब लिखें.
शुभकामनायें.
बहुत ही साफ़-साफ़ और ईमानदारी से कही गय़ी और hard-hitting कविता...हमारी भारतीय संस्कृति के तथाकथित पैरोकारों के लिये एक संदेश है यह..जो लोग गटर-जल-कुंभ को भी मखमली दुशाले से ढकने के हिमायती हैं..आजकल इतना कम पढ़ने को क्यों मिलती हैं ऐसी कवितायें..बधाई.
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