उनके दफ्तर में उन्हें लेकर कई तरह की चर्चाओं का बाजार गर्म रहता है. वे कब आती हैं, क्या करती हैं उनसे कोई नहीं पूछता. लेकिन उनकी काया बताती है कि ब्यूटीपॉर्लर वे नियमित जाती हैं. दिनोंदिन उनकी उमर घट रही है और कई बरस पहले दिखती प्रौढ़ता अब वे नाजुकता में बदलती जा रही है. अपनी इस नाजुकता की वे बहुत सम्हाल करती हैं. इस उम्दा निखार का राज पूछने पर पहले वे मुस्काती हैं फिर राज खोल कर बताती हैं- 'लॉफिंग क्लास' ज्वॉइन कर ली है, उसी का नतीजा है. फिर जोरदार ठहाका हा.. हा.. हा.. और अलविदा हो जाती हैं.
उनसे नित नयी खुशबू आती है. किसिम-किसिम के परफ्यूम उनके पर्स में मौजूद रहते हैं. दसियों 'आसामियों' पर वे इसके जरिए रुतबा जमा चुकी हैं. उनसे जलने वाले इसे उनका छिछोरा काम मानते हैं. वे निश्छलता के साथ दूसरों की फिकर हवा में उछाल देती हैं. और 'आई डोंट केयर' मार्का अदा फेंकती हैं. वे हमेशा लकदक बनी रहती हैं और अपनी विशिष्टता को कायम रखने का इसे औजार मानती हैं. संघर्षभरे दिन उन्होंने भी देखे हैं, जब उन्हें नियम से काम करने पड़ते थे. रोजनदारी की नीरस जिम्मेदारियाँ उनके नाम भी थीं. हफ्ते में एकाध दिन उन्हें भी देर तक रुककर काम करना पड़ता था. खूसट टाइप का उनका बॉस उन्हें बेवजह अपने सामने बिठाए रखता था. बॉस का मानना था कि महिलाओं को साड़ी पहनकर ऑफिस आना चाहिए, इस कारण उन्हें अक्सर ही साड़ी पहनना पड़ती.
काम में वे हमेशा औसत रहीं. जिस काम के लिए उनकी भर्ती हुई, उससे जुड़े तमाम कामों को वे सीख चुकीं और सहजता से कर लेती थीं. उन्होंने यह भी सीखा कि 'काम करना' और 'साबित करना' दो अलग-अलग बातें हैं. यह आवश्यक नहीं कि अच्छा काम करने से होता है, अच्छा काम साबित करके दिखाने से भी होता है. उन्होंने यह कला भी सीख ली थी. पहले पहल उन्होंने काम की महत्ता को समझा. सीरियस होकर काम किया. पर धीरे-धीरे वे यह समझ गईं कि काम करने से ज्यादा उसे प्रस्तुत करने में नंबर ज्यादा मिलते हैं. काम कोई भी करे, उसे प्रस्तुत करने उन्हें ही जाना चाहिए.
बॉस उनकी सोहबत पसंद करता है, इस सच्चाई को उन्होंने धीरे-धीरे स्वीकारना शुरू कर दिया था और तेजी से उनमें बदलाव होने लगे. अब वे मौसम के हिसाब से साड़ियों के रंगों का चयन करने लगीं. हफ्ते में कुछ दिनों बालों को बाँधकर आने लगीं. यह सब इसलिए होने लगा क्योंकि साहब को पसंद है. साहब के घरेलू मुद्दों पर भी वे धीरे-धीरे बात करने लगीं. साहब पर कौन से रंग के कपड़े ज्यादा फबते हैं, वे यह भी तय करने लगीं. साहब की घरेलू खरीददारी में भी उनका सहयोग बढ़ने लगा और ज्यों-ज्यों वे वहाँ व्यस्त होने लगीं ऑफिस की जिम्मेदारियों से उन्हें मुक्ति मिलने लगी.
वे धाराप्रवाह अंगरेजी बोलती हैं और कई बार भूल जाती हैं कि सुनने वाले को ठीक से हिंदी भी समझ नहीं आती. बोलने के अलावा काम करवाने की कला भी उन्हें आती है. कई बार चपरासियों से भी वे मीठे बोल बोलती पायी गईं. वे काम से काम रखने वाली हैं और बेवजह बात करना उन्हें फिजूल लगता है.
सीखने की उनमें जबरदस्त इच्छाशक्ति है. हर वह काम जिसमें फायदा संभावित है उसे सीखने की लगन वे पैदा कर लेती हैं. उनका सम्पूरन व्यक्तित्व सीख-सीख कर ही बना है. एक तरह से वे भारतीय संविधान हैं. फर्क इतना है कि भारतीय संविधान में सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाय की भावना प्रबल है, जबकि उनके भीतर स्वयं की सुख-सुविधा और रुतबा कैसे लगातार बढ़ता जाए इस बाबत उन्होंने चुन-चुनकर दुनियादार और कामयाब लोगों की आचार-व्यवहार को अपने में आत्मसात कर लिया है. थोड़ी-थोड़ी जानकारी वे हर क्षेत्र की रखती हैं. वे लिखती हैं, पढ़ती हैं, प्रस्तुत होना जानती हैं. कुल मिलाकर उनके तरकश में किस्म-किस्म के तीर मौजूद रहते हैं.
वे नये जमाने की सफल किरदार हैं और उनके बारे में लोग 'ऑंखों की भाषा' में बात करतें हैं.
Tuesday, June 23, 2009
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7 comments:
आधुनिक समझदार नारी का नवरूप !!!! बहुत बहुत करारा,एकदम सटीक......
लाजवाब लिखा है आपने.........
नारी मुक्ति वालियों ने कहीं अगर पढ़ लिया तो चढ़ बैठेंगी
aapka tevar gazab ka hai
ye rachna aaj k mahaul ki parten ughaadne me saksham hai
badhaai !
aadhunikata ka pratik jaisa kawita........bahut sundar
बेहतरीन रचा है.
"उन्होंने यह भी सीखा कि 'काम करना' और 'साबित करना' दो अलग-अलग बातें हैं. यह आवश्यक नहीं कि अच्छा काम करने से होता है, अच्छा काम साबित करके दिखाने से भी होता है. " क्या खूब कहा है ? हमारे चारो तरफ यही तो चल रहा है |
बहुत अच्छा लिखा है |
बहुत जोरदार रचना-क्या तेवर हैं?
बधाई!
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