गाँव और शहर
जैसे सिक्के के दो पहलू
गाँव शामिल है
सदा से रक्त में
और महानगर
बदलता है चोला बार-बार
गाँव की गरीबी और
शहर की झुग्गियों का फर्क
नुमाया नहीं होता
लावारिस और आवारापने के रंग
गाँव और शहर के होते हैं जुदा
गाँव की दुनिया में पुजता था इंसान
और मास्टरों को मिलती थी
बेशुमार इज्जत
बजता हारमोनियम
होता नाच
गिल्ली-डंडा खेलते बच्चे
और होतीं कुश्तियाँ
गाँव की कविता-कहानी में
खेत और फसल
हल और बखर
निंदाई और गुड़ाई
फसल की कटाई
दाँय और उड़ान
महुआ और गुली
बेर और कंडी
क्या कुछ नहीं था
जजमानी और प्रवचन
रामलीला और नौटंकी
रावला और बेडनी का नाच
राई और दलदल घोड़ी
और फिर बजता था रमतूला
कोदों की रोटी फिर
सतुआ और बिरचुन
डुबरी और फरा या
महेरी और लपटा
चीला और सिमई
लबदो और तसमई
फिर खाते थे लोग रामदानें
जलबिहार का मेला
और ताजियों की फेरी
मीलाद की बैठक और
बजरोठी का रतजगा
जाने कहाँ बिला गया
वह जीता जागता दृश्य
अब शहर की झुग्गी में रहता है आदमी
और चलता है पैदल
पटियों पर बैठकर खाता है रोटी
कभी अधपेटा रहा आता
भौतिकता के तमाम सुख
सड़क के पार जगमग हैं
हालाँकि उसे सपने देखने से
नहीं रोका जा सकता
वह चोरी नहीं करता
करने की सोचता है
झूठ नहीं बोल पाता
ऐन मौके पर गड़बड़ाता है
वह बिना वजह
उगलता है सच
और छीनकर हासिल करने की
उसकी कूबत नहीं
नहीं सीख पाया वह
चापलूसी करना
और धोखा देना
और माँगना उधार
बुरे दिनों की छाया की मानिंद
गाँव अब तक तारी है
और लगता है उसे
लौट जायेगा वह वहीं
जहाँ से चला था
एक नौकरी
रहने को छत
बीबी और बच्चे
थोड़ा-सा सुख
थोड़ी-सी बचत
और ढेर सारे सपने
एक आदमी और क्या चाहता है ज़िंदगी से
क्या इतना भर है
जीवन का मतलब?
Wednesday, June 23, 2010
Thursday, June 10, 2010
शहर भोपाल
मंज़ूर एहतेशाम
यह बड़ी लाचारी है कि खुद अपनी बात किये बिना आप अपने शहर को याद नहीं कर पाते। सिर्फ़ इतना ही नहीं, खुद तक पहुँचने के लिए पहले आपको अपने बुजुर्ग़ों की उँगली पकड़ना पड़ती है और बुज़ुर्गों का ज़िक्र उत्तर-आधुनिक आख्यान-सा लगता है, जो कभी-कभी, मन को भाते हुए भी, समझ सकने की क्षमता से अतीत लगता है।
उस समय को याद करने की कोशिश करता हूँ, जहाँ शताब्दियों पूर्व मेरा जन्म हुआ था और जिसका नाम भी भोपाल ही था। समय के साथ सब कुछ इस सहजता से बदल गया है कि मेरे बुज़ुर्ग अगर लौट कर यहाँ आ सकें, तो चौतरफ़ नज़र दौड़ाने के बाद, बहुत-आश्चर्य या निराशा से, इसे पहचानने से इन्कार करते-करते शायद पहचान ही लेंगे।
मैं बात वहीं से शुरू करता हूँ जहां से औपचारिक रूप से उसे शुरू होना चाहिए। मेरे अब्बा और शायद उनके पिता, यानी मेरे दादा भी। फिर, मेरी दोनों बेटियाँ भी यहीं जन्मीं। मैंने सीमांत प्रांत (एम.डब्ल्यू.एफ.पी., जो अब पाकिस्तान में है), सुवात और बुनेर (जो आजकल तालिबान और ओसामा लादेन का कार्यक्षेत्र और हेड-क्वार्टर हैं), और वहाँ के पठानों के किस्से भी, बचपन से सुनें हैं (वे लोग मेरे बुज़ुर्गों का ख़ानदान थे)। मेरे छोटे दादा का क़लमी-सफ़रनामा भी, जो उनका बाद के दिनों में वहाँ की यात्रा का दास्तान है, मेरे काग़ज़ात में सुरक्षित है। बचपन में लोगों की ज़बानी सुनने और आज खुद उस सफ़रनामे की टूटी-उर्दू तहरीर जोड़-तोड़ कर पढ़ने की कोशिश करते, यह सब कुछ एक जादुई वृतांत-सा ही लगता है। लेकिन, यह सब वहीं रहते हुए, जहाँ पैदा होकर मैं आज इस उम्र तक पहुँचा हूँ। यानी भोपाल में। खुद वहाँ जाने का ख्याल या अपने 'रिश्तेदारों' से मिलने का तसव्वुर मैंने कभी नहीं किया।
अपने ख़ानदान का लम्बा शजर: (वंशवृक्ष) देखते और उसके बारे में पढ़ते, यह साफ़ हो जाता है कि हमारे बुज़ुर्गों के नाम पर, जो लोग फ्रंटियर से यहाँ आये और फिर यहीं बस भी गये कोई सैलानी या एडवॅचरर नहीं थे, बल्कि 'तलाशे मआश' यानी रोज़-रोटी की तलाश में उन्हें अपना आबाई वतन छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। छोटे दादा की तहरीर के हर शब्द और वाक्य में भूख, गरीबी, बीमारी, जहालत, बड़बोलापन, घुटने मोड़े, तरह-तरह की शक्लें बनाए, शुरू से आख़िर तक एक जुलूस की शक्ल में फैले नज़र आते हैं। साथ ही हैरानी होती है कि इतनी पीढ़ियाँ यहाँ की ख़ाक का रिज्क बन चुकीं, लेकिन उनमें से किसी ने भी आज तक अपने होने का कोई बिगुल नहीं बजाया। हद यह कि शहर की तारीख में कोई नामीं-गिरामी गुण्डा या बदमाश तक पैदा नहीं किया। सब सहजतापूर्वक भूख, बेरोज़गारी, तपेदिक, गरीबी और अन्य-अन्य बीमारियों का शिकार होकर और मजबूरी और तंगहाली को मुकद्दर मानकर, निहायत मौतें मरते गए। जो उन्होंने पाया, वह सिर्फ एक टूटी-फूटी जिन्दगी जी लेने का सुख ही होगा। शायद।
इसका मतलब यह नहीं कि भोपाल के तमाम लोगों की जिन्दगी इसी प्रकार की थी। हर्गिज नहीं। यहाँ हमारे परिवार से ज्यादा खुशहाल और उनसे कहीं ज्यादा बदहाल लोग, हमेशा-हमेशा रहे हैं। खुशहाली के दर्शन दुर्लभ थे, तो बदहाली चौतरफ बिखरी नजर आती थीं। हालाँकि उस जमाने में खुशहाली को बदहाली से उस तरह अलग करके देखना संभव नहीं था, जिस तरह आम तौर पर हो गया है। मध्य वर्ग की पहचान भी, उसके अनेकानेक क़िस्मों में बंट जाने से, सरल नहीं रही और ऊँचा वर्ग तो हमेशा एक पहेली रहा ही है। जो भी कहें, लेकिन आज बदहाली में भी, पहले की निस्बत खुशहाली की अदा तो शामिल है ही। यह दोधारी तलवार खास तौर पर हमारी आजादी के बाद और पिछले 20 सालों की विशेष उपलब्धि है।
मैं जिस भोपाल में आज से कोई 60 साल पहले पैदा हुआ था, (वह रियासत भोपाल के बाद का, एक ज़माना था) उस के भी भीतर, एक 'शहर' भोपाल हुआ करता था, जिसमें हर जुमे की दोपहर, अब्बा नमाज़ पढ़ने, जामा मस्जिद जाया करते थे। उनकी अनुपस्थिति में, जब उनसे कोई मिलनेवाला घर आता, तो अम्मा, हम बच्चों से कहलवा देतीं-'अब्बा शहर गये हैं।' यही त्यौहार के मौके पर, जब हम लोगों को कपड़े-जूते की ख़रीददारी के लिए तांगे में बाज़ार ले जाया जाता- 'शहर चल रहे हैं।' दरअसल फ़सील और दीवारों के भीतर जो बसाहट थी, समय बीतने के साथ समझ में आया, उसे शहर कहा जाता था। उसके अनेक मुहल्लों, गली-कूचों में बसने वालों को ही शहरी कहलाये जाने का हक़ था और हमार घर-मुहल्ला, इस लिहाज़ से, उसमें शामिल नहीं था। हम उस इलाक़े के रहनेवाले थे जो किसी समय 'दरो-दीवार' वाले शहर से बाहर, उस तरह बसता गया था, जैसे आज के ज़माने में झोपड़-पट्टी। यहाँ रहने वाले, आमतौर पर कमज़ोर आर्थिक वर्ग से संबंधित थे और इन बस्तियों में वह सहूलतें, उस प्रकार उपलब्ध नहीं थीं जो शहर में थीं।
सोचो, तो तब यह समूचा भोपाल, हथेली भर था, लेकिन याददाश्त में उसका फैलाव समन्द्रों जितना था। उस दुनिया के बरअक्स जो समय के साथ सिमटकर हथेली में समा गई है। यहाँ जो कुछ था, वह बाकी की दुनिया की तुलना में कैसा था, इससे बेपरवाह भोपाल की बाशिंदे अपने ताल-तलैयों, पहाड़-पहाड़ियों में मगन थे। व्यवसायिकता और व्यवसायिक रवैये की, आम जन के जीवन में, न जगह थी, न कल्पना।
(मैं एक असंभव को, ऑंखें मूँद कर स्वीकार करता चल रहा हूँ, एक अतीत प्रेमी यही करता है। बीते समय को दोष-मुक्त कर, सारी खूबियाँ उससे जोड़ देता है। क्षमा नहीं, कृपया मुझे समझें।)
आमतौर पर, शहर के खुशहाल लोग वह थे जिनके पास खेती की लम्बी-चौड़ी ज़मीनें थीं, क्योंकि ज़िन्दगी की ज्यादातर ज़रूरतें, घूम-फिर कर, खेतों, बागों और जंगलों से ही पूरी होती थीं। एक मध्य वर्ग वह था जिसका व्यवसाय जंगलों की ठेकेदारी और लकड़ी से संबंधित तिरजारत-आरामशीन, फर्रे, बुरादा, जोड़ी-चौखट और लकड़ी के फ़र्नीचर से जुड़ा था, तो दूसरा वह, जो थोड़ी बहुत खेती की ज़मीन का भी मालिक था, और दूध देनेवाले जानवर पालकर, दूध बेचने को भी अपनी आमदनी का ज़रिया बनाता था। लकड़ी के पीठे और भैंस के तबैले उस तुलनात्मक खुशहाल, मगर बुनियादी तौर पर अपढ़, मध्यवर्ग की जीविका के साधन थे, जो किसी अन्य प्रकार की दुकानदारी के उलझावे में नहीं पड़ना चाहता था। नौकरी गिनती के पढ़े-लिखों का हिस्सा थी, जिन्हें शायद सरकार की ओर से माकूल तनख्वाह मिल जाती होगी, क्योंकि मामूली बाबूगिरी भी देखी इज्ज़त की नज़र से जाती थी। या फिर उस तरह के लोग छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरियाँ करते थे, जिनका गुज़र-बसर ही रोज़ की मेहनत-मज़दूरी पर था।
शहर में धंधा करनेवाले और बड़े दुकानदार भी थे, लेकिन किसी उद्योग के नाम पे सिर्फ़ एक कपड़ा मिल का नाम सुनने में आता था। यह भी उसके अनियमित चाल-चलन और उसमें काम करनेवालों के रोज़गार पर लगने या बेरोज़गार हो जाने को लेकर। एक पुट्ठा मिल भी थी, लेकिन उस पर आश्रित लोगोें की संख्या इतनी नहीं थी कि शहर की आर्थिक आबो-हवा को प्रभावित कर पाती। एक बिजलीघर था, जो ऐसी 'खालिस' बिजली सप्लाई करता था, जो किसी को पकड़ ले तो छोड़ती नहीं थी।
और क्या?
दो अस्पताल थे, एक ज़नाना, एक मर्दाना, एक यूनानी शफ़ाखाना था, कुछ लड़के-लड़कियों के स्कूल, एक इन्टर-कॉलेज, तीन सिनेमाघर, एक बस स्टैण्ड और एक रेलवे-स्टेशन। कुछ गिनती के अखाड़े थे और एक हम्माम, जो हर साल जाड़ों में, गर्म होने का ऐलान करता था। सबसे अधिक तादात मस्जिदों की थी और उसके बाद नंबर आता था तालाबों का। सारे शहर में ताल-तलैयों का एक ऐसा जाल बिछा था कि पैदल चलते भी आप रह-रहकर किसी नये तालाब के किनारे होते थे। तालाबों से छूटो, तो पातरा थी, जिसका पानी बहता रहता था और जिसके घाटों पर धोबियों की भट्टियाँ लगती थीं, रस्सियाँ खींच कर शहर भर के धुले कपड़े फैलाये और सुखाये जाते थे। और हाँ, नर्मदा आइस फैक्ट्री को भला कैसे भूला जा सकता है, जहाँ गर्मियों में 'चमत्कारी' बर्फ बनती थी। आईसक्रीम के ठेले, साइकिल-रिक्शा की शक्ल के, शहर की सकरीं और गलियों में, 'आईस्क्रीम, नर्मदा फैक्ट्री', की ललचाने वाली आवाजें लगाते, घूमते थे। सफेद पेन्ट से पुता लकड़ी का बक्सा, उस पर मोटे लाल अक्षरों में लिखा- 'नर्मदा आईस्क्रीम।'
शहर में पुरानी इमारतों और महलों का एक सिलसिला था जो देखरेख की कमी के कारण तेजी से खण्डहर होता जा रहा था या जहाँ पार्टीशन के बाद आये सिंधी-पंजाबी शरणार्थी रह रहे थे। उन शाही नामों की इमारतों का रंग-रोग़न, रोज-ब-रोज़, तेजी से उड़ता जा रहा था और उन्हीं की सेहत कुछ दुरुस्त थी, जिसमें स्कूल या सरकारी दफ्तर लगने लगे थे। शहर की फ़सील और दरवाजे, ऑंख में परछाईं की तरह तैरकर गायब हो जाते हैं, क्योंकि मेरे छुटपन में ही उन्हें आने वाले दिनों के ब्लू-प्रिंट के अनुसार, ढा दिया गया था। कुहड, जैसी जुमेराती गेट या ताजमहल के आसपास के मोखे, आज भी हैं, लेकिन जो शहर के बीचों-बीच हुआ करते थे, वह नहीं रहे। इन पुरानी इमारतों के अलावा शहर में दो या उससे ज्यादा मंजिल के मकान कम थे। आमतौर पर छोटे-छोटे घरों में भी सेहन और हरियाली, दरों-दीवार की ही तरह पाये जाते थे।
अब सब मैं, उस मुट्ठी-भर शहर की कल्पना में, समन्दर से विस्तार को, समझा सकने की कोशिश में, याद करना चाह रहा हूँ।
इस शहर की विशेषता ताल, पहाड़, बेगमात, गुटका बटवा इत्यादि के अलावा यहाँ मौजूद उर्दू शायरों की तादाद भी रही है। अल्लामा इक़बाल और जिगर मुरादाबादी का मेज़बान रह चुका भोपाल, खुद भी शायरी और शायरों का घर था। एक फिज़ा और माहौल था, शायरी और उससे जुड़े चार-बेत क़व्वाली और बेतबाज़ी का यहाँ, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। शायरों और शिकार, यह दो तरह के बड़े लोगों के शौक़ थे। गद्यकार भी थे, लेकिन उनकी हैसियत उस प्रकार से आंक पाना, जैसे मुशायरों में शायरों की आंकी जाती शायद संभव नहीं था। धार्मिक विद्वानों के अलावा पत्रकार थे, राजनेता थे, गानेवालियों का लक्ष्मी टॉकीज का मुहल्ला था और हॉकी का खेल, जिसने देश को कई नामी खिलाड़ी दिये। सन् 1956 में मध्यप्रदेश की राजधानी बनने के क़ाफी समय बाद तक भी, 'भोपाली बोलचाल' का खुद अपना लबो-लह्जा था, जिसे भोपाली भाषा भी कह दिया जाए तो शायद ग़लत न होगा।
मुल्ला रमूज़ी और उनकी 'गुलाबी उर्दू' का महत्व तो उन लोगों के लिए होगा जो बाक़ायदा उर्दू पढ़ते-लिखते थे, बरकतउल्लाह भोपाली को यहाँ और भी बाद में जाना गया। आम जनता को, जब तक मुद्दों को सियासी रंग न दे दिया जाए, ऐसे लोगों में न ख़ास दिलचस्पी थी और न है। अवामी सतह का नायक खान शाकिर अली खान था, जिसका संबंध कम्युनिस्ट पार्टी से था या फिर बाद में शंकरदयाल शर्मा, जिन्हें देश का राष्ट्रपति बनने का गौरव प्राप्त हुआ।
उन परिवर्तनों में जो मैंने यहाँ अपनी ऑंखों के सामने देखे, मौसमों में आया बदलाव सबसे अप्रिय लगता है। ऐसा नहीं कि यहाँ गर्मी नहीं पड़ती थी-खूब पड़ती थी। दिन तपते और लू भी चलती थी। वैसी नहीं जो दिल्ली-यू.पी. में चलती थी। लेकिन रातों को खुशगवारी दिन की थकान मिटा देती थी। अब मौसमों का असन्तुलन बढ़ गया है। इस पर वह भी सहमत हैं, जिनके पास हर तरह के मौसम में लड़ सकने के कवच और साधन हैं, और जो आज शहर भोपाल की उस सीमा से बहुत दूर, खुले में रहते हैं, जो मेरे बचपन में फ़सीलों से तय थी, उससे बहुत आगे जहाँ कभी हमारा मुहल्ला-छावनी विलायतियान हुआ करता था। शायद एक ही सकून है कि यह ख़राबी दूसरे शहरों की निस्बत कम है।
भोपाल समय के साथ पहले धीमी गति और फिर तेजी से बदला है। बाकी दुनिया की ही तरह। इसके फैलाव में वह पुराना शहर आज एक छोटा-सा हिस्सा है, जो अपनी सूरत-शक्ल वैसी ही बनाए रखने में नाकाम है। जनसंख्या बढ़ी है (तीस-चालीस हज़ार से पन्द्रह-बीस लाख।) ताँगे-साईकिलों के जगह पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों ने ले ली है, औद्योगिक क्षेत्रों का भरपूर विकास हुआ है और अपनी प्राकृतिक-भौगोलिक विशेषताओं के साथ, यह जिन्दगी की दौड़ में पूरी तरह शामिल है। जिस तरह कभी मेरे पूर्वज आये थे, बाद में यहाँ लाखों आये हैं और बस गए हैं। आज देश के नक्शे में यह शहर नुमायाँ है, वह भारत भवन के कारण हो, मानव-संग्रहालय तथा अन्य-अन्य महत्वपूर्ण संस्थानों की वजह से या अनेक पर्यटन स्थलों के कारण जो इसके इर्द-गिर्द सजते-संवरते गए हैं।
यहाँ की नयी बस्तियाँ भी उन सारे सुख-साधनों से परिपूर्ण हैं जो इस स्तर पर बढ़ते शहर में उपलब्ध होना चाहिए। देखते ही देखते यह शहर देश के महत्वपूर्ण और गिनती के शिक्षा केन्द्रों में शामिल हो गया है जहाँ पत्रकारिता से लेकर मेडिकल साइंस और इंजीनियरिंग के अनेकानेक कॉलेज और संस्थाएं हैं और जहाँ दूर-दूर से छात्र जमा होते हैं अपने भविष्य को तय करने के लिए।
एक ज़माना था जब यह माना जाने लगा था कि भोपाल, देश की सांस्कृतिक राजधानी बनने जा रहा है और लोगों के ऐसा सोचने के पीछे, वह सब था, जो कवि-आलोचक-प्रशासक अशोक वाजपेयी ने 1972 के बाद भोपाल में, इस क्षेत्र में, योजनाबध्द तरीके से किया था। शुरू में उन्हें सब का सहयोग भी मिला लेकिन, धीरे-धीरे विरोध का सामना भी करना पड़ा। भारत भवन जिसे लोग कलाओं का घर कहते हैं, आज भी है, मगर उसकी छवि कुछ अजीब प्रकार से धूमिल पड़ी हैं और वह महत्व जो उसे नब्बे की दहाई तक प्राप्त था, कभी का खत्म हो चुका है। कला हो या साहित्य, भोपाल का मामला सीधे जवानी से बुढ़ापे का सा लगता है और सहमति-विरोध अपनी जगह, सच यह है कि अशोक वाजपेयी के 'हाथी' से दूसरा कोई उपयोगी कम नहीं ले सका, सजावट के लिए तो जो आता है, वह इस्तेमाल करने की कोशिश करता ही है।
तो यह है, संक्षेप में, वह भोपाल जिसे मैंने देखा जाना। सत्येन कुमार, शानी, दुष्यंत त्यागी, शरद जोशी, सोमदत्त, फ़जल ताबिश और किसी दम के लिए निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती, दिलीप चित्रे, कृष्ण बलदेव वैद और जे. स्वामीनाथन तथा वी.बी. कारथ तथा विजय मोहन सिंह का भोपाल। बड़े लोग किसी एक जगह रुक कर कहाँ बैठते हैं। इन लोगों के जाने के बाद भी लोग भोपाल में हैं, लेकिन वह इस तरह, बिना कोशिश किये, याद नहीं आ पाते।
शायद कुछ बेहतर हो और भोपाल का कलाजगत भी उसी अनुपात में फैले-बढ़े, जैसे यह बाक़ी शहर इसी दुआ के साथ।
'अकार' अप्रैल से जुलाई 2009 में संकलित
मंज़ूर एहतेशाम
1973 में प्रकाशित 'रमजान में मौत' मंज़ूर एहतेशाम की पहली कहानी थी और 1976 में 'कुछ दिन और' नाम से आपका पहला उपन्यास प्रकाशित हुआ था। 'सूखा बरगद' के लिए आपको श्रीकांत वर्मा पुरस्कार से सम्मानित किया गया। राही मासूम रज़ा की तरह ही मंज़ूर एहतेशाम ने अपनी रचनाओं के माध्यम से अल्पसंख्यक समुदाय को यर्थाथवादी ढंग से प्रस्तुत किया है। भारतीय भाषा परिषद, वीरसिंह देव सम्मान के साथ पहल सम्मान से भी सम्मानित। वर्ष 2000 में शिखर सम्मान के साथ 2003 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
यह बड़ी लाचारी है कि खुद अपनी बात किये बिना आप अपने शहर को याद नहीं कर पाते। सिर्फ़ इतना ही नहीं, खुद तक पहुँचने के लिए पहले आपको अपने बुजुर्ग़ों की उँगली पकड़ना पड़ती है और बुज़ुर्गों का ज़िक्र उत्तर-आधुनिक आख्यान-सा लगता है, जो कभी-कभी, मन को भाते हुए भी, समझ सकने की क्षमता से अतीत लगता है।
उस समय को याद करने की कोशिश करता हूँ, जहाँ शताब्दियों पूर्व मेरा जन्म हुआ था और जिसका नाम भी भोपाल ही था। समय के साथ सब कुछ इस सहजता से बदल गया है कि मेरे बुज़ुर्ग अगर लौट कर यहाँ आ सकें, तो चौतरफ़ नज़र दौड़ाने के बाद, बहुत-आश्चर्य या निराशा से, इसे पहचानने से इन्कार करते-करते शायद पहचान ही लेंगे।
मैं बात वहीं से शुरू करता हूँ जहां से औपचारिक रूप से उसे शुरू होना चाहिए। मेरे अब्बा और शायद उनके पिता, यानी मेरे दादा भी। फिर, मेरी दोनों बेटियाँ भी यहीं जन्मीं। मैंने सीमांत प्रांत (एम.डब्ल्यू.एफ.पी., जो अब पाकिस्तान में है), सुवात और बुनेर (जो आजकल तालिबान और ओसामा लादेन का कार्यक्षेत्र और हेड-क्वार्टर हैं), और वहाँ के पठानों के किस्से भी, बचपन से सुनें हैं (वे लोग मेरे बुज़ुर्गों का ख़ानदान थे)। मेरे छोटे दादा का क़लमी-सफ़रनामा भी, जो उनका बाद के दिनों में वहाँ की यात्रा का दास्तान है, मेरे काग़ज़ात में सुरक्षित है। बचपन में लोगों की ज़बानी सुनने और आज खुद उस सफ़रनामे की टूटी-उर्दू तहरीर जोड़-तोड़ कर पढ़ने की कोशिश करते, यह सब कुछ एक जादुई वृतांत-सा ही लगता है। लेकिन, यह सब वहीं रहते हुए, जहाँ पैदा होकर मैं आज इस उम्र तक पहुँचा हूँ। यानी भोपाल में। खुद वहाँ जाने का ख्याल या अपने 'रिश्तेदारों' से मिलने का तसव्वुर मैंने कभी नहीं किया।
अपने ख़ानदान का लम्बा शजर: (वंशवृक्ष) देखते और उसके बारे में पढ़ते, यह साफ़ हो जाता है कि हमारे बुज़ुर्गों के नाम पर, जो लोग फ्रंटियर से यहाँ आये और फिर यहीं बस भी गये कोई सैलानी या एडवॅचरर नहीं थे, बल्कि 'तलाशे मआश' यानी रोज़-रोटी की तलाश में उन्हें अपना आबाई वतन छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। छोटे दादा की तहरीर के हर शब्द और वाक्य में भूख, गरीबी, बीमारी, जहालत, बड़बोलापन, घुटने मोड़े, तरह-तरह की शक्लें बनाए, शुरू से आख़िर तक एक जुलूस की शक्ल में फैले नज़र आते हैं। साथ ही हैरानी होती है कि इतनी पीढ़ियाँ यहाँ की ख़ाक का रिज्क बन चुकीं, लेकिन उनमें से किसी ने भी आज तक अपने होने का कोई बिगुल नहीं बजाया। हद यह कि शहर की तारीख में कोई नामीं-गिरामी गुण्डा या बदमाश तक पैदा नहीं किया। सब सहजतापूर्वक भूख, बेरोज़गारी, तपेदिक, गरीबी और अन्य-अन्य बीमारियों का शिकार होकर और मजबूरी और तंगहाली को मुकद्दर मानकर, निहायत मौतें मरते गए। जो उन्होंने पाया, वह सिर्फ एक टूटी-फूटी जिन्दगी जी लेने का सुख ही होगा। शायद।
इसका मतलब यह नहीं कि भोपाल के तमाम लोगों की जिन्दगी इसी प्रकार की थी। हर्गिज नहीं। यहाँ हमारे परिवार से ज्यादा खुशहाल और उनसे कहीं ज्यादा बदहाल लोग, हमेशा-हमेशा रहे हैं। खुशहाली के दर्शन दुर्लभ थे, तो बदहाली चौतरफ बिखरी नजर आती थीं। हालाँकि उस जमाने में खुशहाली को बदहाली से उस तरह अलग करके देखना संभव नहीं था, जिस तरह आम तौर पर हो गया है। मध्य वर्ग की पहचान भी, उसके अनेकानेक क़िस्मों में बंट जाने से, सरल नहीं रही और ऊँचा वर्ग तो हमेशा एक पहेली रहा ही है। जो भी कहें, लेकिन आज बदहाली में भी, पहले की निस्बत खुशहाली की अदा तो शामिल है ही। यह दोधारी तलवार खास तौर पर हमारी आजादी के बाद और पिछले 20 सालों की विशेष उपलब्धि है।
मैं जिस भोपाल में आज से कोई 60 साल पहले पैदा हुआ था, (वह रियासत भोपाल के बाद का, एक ज़माना था) उस के भी भीतर, एक 'शहर' भोपाल हुआ करता था, जिसमें हर जुमे की दोपहर, अब्बा नमाज़ पढ़ने, जामा मस्जिद जाया करते थे। उनकी अनुपस्थिति में, जब उनसे कोई मिलनेवाला घर आता, तो अम्मा, हम बच्चों से कहलवा देतीं-'अब्बा शहर गये हैं।' यही त्यौहार के मौके पर, जब हम लोगों को कपड़े-जूते की ख़रीददारी के लिए तांगे में बाज़ार ले जाया जाता- 'शहर चल रहे हैं।' दरअसल फ़सील और दीवारों के भीतर जो बसाहट थी, समय बीतने के साथ समझ में आया, उसे शहर कहा जाता था। उसके अनेक मुहल्लों, गली-कूचों में बसने वालों को ही शहरी कहलाये जाने का हक़ था और हमार घर-मुहल्ला, इस लिहाज़ से, उसमें शामिल नहीं था। हम उस इलाक़े के रहनेवाले थे जो किसी समय 'दरो-दीवार' वाले शहर से बाहर, उस तरह बसता गया था, जैसे आज के ज़माने में झोपड़-पट्टी। यहाँ रहने वाले, आमतौर पर कमज़ोर आर्थिक वर्ग से संबंधित थे और इन बस्तियों में वह सहूलतें, उस प्रकार उपलब्ध नहीं थीं जो शहर में थीं।
सोचो, तो तब यह समूचा भोपाल, हथेली भर था, लेकिन याददाश्त में उसका फैलाव समन्द्रों जितना था। उस दुनिया के बरअक्स जो समय के साथ सिमटकर हथेली में समा गई है। यहाँ जो कुछ था, वह बाकी की दुनिया की तुलना में कैसा था, इससे बेपरवाह भोपाल की बाशिंदे अपने ताल-तलैयों, पहाड़-पहाड़ियों में मगन थे। व्यवसायिकता और व्यवसायिक रवैये की, आम जन के जीवन में, न जगह थी, न कल्पना।
(मैं एक असंभव को, ऑंखें मूँद कर स्वीकार करता चल रहा हूँ, एक अतीत प्रेमी यही करता है। बीते समय को दोष-मुक्त कर, सारी खूबियाँ उससे जोड़ देता है। क्षमा नहीं, कृपया मुझे समझें।)
आमतौर पर, शहर के खुशहाल लोग वह थे जिनके पास खेती की लम्बी-चौड़ी ज़मीनें थीं, क्योंकि ज़िन्दगी की ज्यादातर ज़रूरतें, घूम-फिर कर, खेतों, बागों और जंगलों से ही पूरी होती थीं। एक मध्य वर्ग वह था जिसका व्यवसाय जंगलों की ठेकेदारी और लकड़ी से संबंधित तिरजारत-आरामशीन, फर्रे, बुरादा, जोड़ी-चौखट और लकड़ी के फ़र्नीचर से जुड़ा था, तो दूसरा वह, जो थोड़ी बहुत खेती की ज़मीन का भी मालिक था, और दूध देनेवाले जानवर पालकर, दूध बेचने को भी अपनी आमदनी का ज़रिया बनाता था। लकड़ी के पीठे और भैंस के तबैले उस तुलनात्मक खुशहाल, मगर बुनियादी तौर पर अपढ़, मध्यवर्ग की जीविका के साधन थे, जो किसी अन्य प्रकार की दुकानदारी के उलझावे में नहीं पड़ना चाहता था। नौकरी गिनती के पढ़े-लिखों का हिस्सा थी, जिन्हें शायद सरकार की ओर से माकूल तनख्वाह मिल जाती होगी, क्योंकि मामूली बाबूगिरी भी देखी इज्ज़त की नज़र से जाती थी। या फिर उस तरह के लोग छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरियाँ करते थे, जिनका गुज़र-बसर ही रोज़ की मेहनत-मज़दूरी पर था।
शहर में धंधा करनेवाले और बड़े दुकानदार भी थे, लेकिन किसी उद्योग के नाम पे सिर्फ़ एक कपड़ा मिल का नाम सुनने में आता था। यह भी उसके अनियमित चाल-चलन और उसमें काम करनेवालों के रोज़गार पर लगने या बेरोज़गार हो जाने को लेकर। एक पुट्ठा मिल भी थी, लेकिन उस पर आश्रित लोगोें की संख्या इतनी नहीं थी कि शहर की आर्थिक आबो-हवा को प्रभावित कर पाती। एक बिजलीघर था, जो ऐसी 'खालिस' बिजली सप्लाई करता था, जो किसी को पकड़ ले तो छोड़ती नहीं थी।
और क्या?
दो अस्पताल थे, एक ज़नाना, एक मर्दाना, एक यूनानी शफ़ाखाना था, कुछ लड़के-लड़कियों के स्कूल, एक इन्टर-कॉलेज, तीन सिनेमाघर, एक बस स्टैण्ड और एक रेलवे-स्टेशन। कुछ गिनती के अखाड़े थे और एक हम्माम, जो हर साल जाड़ों में, गर्म होने का ऐलान करता था। सबसे अधिक तादात मस्जिदों की थी और उसके बाद नंबर आता था तालाबों का। सारे शहर में ताल-तलैयों का एक ऐसा जाल बिछा था कि पैदल चलते भी आप रह-रहकर किसी नये तालाब के किनारे होते थे। तालाबों से छूटो, तो पातरा थी, जिसका पानी बहता रहता था और जिसके घाटों पर धोबियों की भट्टियाँ लगती थीं, रस्सियाँ खींच कर शहर भर के धुले कपड़े फैलाये और सुखाये जाते थे। और हाँ, नर्मदा आइस फैक्ट्री को भला कैसे भूला जा सकता है, जहाँ गर्मियों में 'चमत्कारी' बर्फ बनती थी। आईसक्रीम के ठेले, साइकिल-रिक्शा की शक्ल के, शहर की सकरीं और गलियों में, 'आईस्क्रीम, नर्मदा फैक्ट्री', की ललचाने वाली आवाजें लगाते, घूमते थे। सफेद पेन्ट से पुता लकड़ी का बक्सा, उस पर मोटे लाल अक्षरों में लिखा- 'नर्मदा आईस्क्रीम।'
शहर में पुरानी इमारतों और महलों का एक सिलसिला था जो देखरेख की कमी के कारण तेजी से खण्डहर होता जा रहा था या जहाँ पार्टीशन के बाद आये सिंधी-पंजाबी शरणार्थी रह रहे थे। उन शाही नामों की इमारतों का रंग-रोग़न, रोज-ब-रोज़, तेजी से उड़ता जा रहा था और उन्हीं की सेहत कुछ दुरुस्त थी, जिसमें स्कूल या सरकारी दफ्तर लगने लगे थे। शहर की फ़सील और दरवाजे, ऑंख में परछाईं की तरह तैरकर गायब हो जाते हैं, क्योंकि मेरे छुटपन में ही उन्हें आने वाले दिनों के ब्लू-प्रिंट के अनुसार, ढा दिया गया था। कुहड, जैसी जुमेराती गेट या ताजमहल के आसपास के मोखे, आज भी हैं, लेकिन जो शहर के बीचों-बीच हुआ करते थे, वह नहीं रहे। इन पुरानी इमारतों के अलावा शहर में दो या उससे ज्यादा मंजिल के मकान कम थे। आमतौर पर छोटे-छोटे घरों में भी सेहन और हरियाली, दरों-दीवार की ही तरह पाये जाते थे।
अब सब मैं, उस मुट्ठी-भर शहर की कल्पना में, समन्दर से विस्तार को, समझा सकने की कोशिश में, याद करना चाह रहा हूँ।
इस शहर की विशेषता ताल, पहाड़, बेगमात, गुटका बटवा इत्यादि के अलावा यहाँ मौजूद उर्दू शायरों की तादाद भी रही है। अल्लामा इक़बाल और जिगर मुरादाबादी का मेज़बान रह चुका भोपाल, खुद भी शायरी और शायरों का घर था। एक फिज़ा और माहौल था, शायरी और उससे जुड़े चार-बेत क़व्वाली और बेतबाज़ी का यहाँ, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। शायरों और शिकार, यह दो तरह के बड़े लोगों के शौक़ थे। गद्यकार भी थे, लेकिन उनकी हैसियत उस प्रकार से आंक पाना, जैसे मुशायरों में शायरों की आंकी जाती शायद संभव नहीं था। धार्मिक विद्वानों के अलावा पत्रकार थे, राजनेता थे, गानेवालियों का लक्ष्मी टॉकीज का मुहल्ला था और हॉकी का खेल, जिसने देश को कई नामी खिलाड़ी दिये। सन् 1956 में मध्यप्रदेश की राजधानी बनने के क़ाफी समय बाद तक भी, 'भोपाली बोलचाल' का खुद अपना लबो-लह्जा था, जिसे भोपाली भाषा भी कह दिया जाए तो शायद ग़लत न होगा।
मुल्ला रमूज़ी और उनकी 'गुलाबी उर्दू' का महत्व तो उन लोगों के लिए होगा जो बाक़ायदा उर्दू पढ़ते-लिखते थे, बरकतउल्लाह भोपाली को यहाँ और भी बाद में जाना गया। आम जनता को, जब तक मुद्दों को सियासी रंग न दे दिया जाए, ऐसे लोगों में न ख़ास दिलचस्पी थी और न है। अवामी सतह का नायक खान शाकिर अली खान था, जिसका संबंध कम्युनिस्ट पार्टी से था या फिर बाद में शंकरदयाल शर्मा, जिन्हें देश का राष्ट्रपति बनने का गौरव प्राप्त हुआ।
उन परिवर्तनों में जो मैंने यहाँ अपनी ऑंखों के सामने देखे, मौसमों में आया बदलाव सबसे अप्रिय लगता है। ऐसा नहीं कि यहाँ गर्मी नहीं पड़ती थी-खूब पड़ती थी। दिन तपते और लू भी चलती थी। वैसी नहीं जो दिल्ली-यू.पी. में चलती थी। लेकिन रातों को खुशगवारी दिन की थकान मिटा देती थी। अब मौसमों का असन्तुलन बढ़ गया है। इस पर वह भी सहमत हैं, जिनके पास हर तरह के मौसम में लड़ सकने के कवच और साधन हैं, और जो आज शहर भोपाल की उस सीमा से बहुत दूर, खुले में रहते हैं, जो मेरे बचपन में फ़सीलों से तय थी, उससे बहुत आगे जहाँ कभी हमारा मुहल्ला-छावनी विलायतियान हुआ करता था। शायद एक ही सकून है कि यह ख़राबी दूसरे शहरों की निस्बत कम है।
भोपाल समय के साथ पहले धीमी गति और फिर तेजी से बदला है। बाकी दुनिया की ही तरह। इसके फैलाव में वह पुराना शहर आज एक छोटा-सा हिस्सा है, जो अपनी सूरत-शक्ल वैसी ही बनाए रखने में नाकाम है। जनसंख्या बढ़ी है (तीस-चालीस हज़ार से पन्द्रह-बीस लाख।) ताँगे-साईकिलों के जगह पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों ने ले ली है, औद्योगिक क्षेत्रों का भरपूर विकास हुआ है और अपनी प्राकृतिक-भौगोलिक विशेषताओं के साथ, यह जिन्दगी की दौड़ में पूरी तरह शामिल है। जिस तरह कभी मेरे पूर्वज आये थे, बाद में यहाँ लाखों आये हैं और बस गए हैं। आज देश के नक्शे में यह शहर नुमायाँ है, वह भारत भवन के कारण हो, मानव-संग्रहालय तथा अन्य-अन्य महत्वपूर्ण संस्थानों की वजह से या अनेक पर्यटन स्थलों के कारण जो इसके इर्द-गिर्द सजते-संवरते गए हैं।
यहाँ की नयी बस्तियाँ भी उन सारे सुख-साधनों से परिपूर्ण हैं जो इस स्तर पर बढ़ते शहर में उपलब्ध होना चाहिए। देखते ही देखते यह शहर देश के महत्वपूर्ण और गिनती के शिक्षा केन्द्रों में शामिल हो गया है जहाँ पत्रकारिता से लेकर मेडिकल साइंस और इंजीनियरिंग के अनेकानेक कॉलेज और संस्थाएं हैं और जहाँ दूर-दूर से छात्र जमा होते हैं अपने भविष्य को तय करने के लिए।
एक ज़माना था जब यह माना जाने लगा था कि भोपाल, देश की सांस्कृतिक राजधानी बनने जा रहा है और लोगों के ऐसा सोचने के पीछे, वह सब था, जो कवि-आलोचक-प्रशासक अशोक वाजपेयी ने 1972 के बाद भोपाल में, इस क्षेत्र में, योजनाबध्द तरीके से किया था। शुरू में उन्हें सब का सहयोग भी मिला लेकिन, धीरे-धीरे विरोध का सामना भी करना पड़ा। भारत भवन जिसे लोग कलाओं का घर कहते हैं, आज भी है, मगर उसकी छवि कुछ अजीब प्रकार से धूमिल पड़ी हैं और वह महत्व जो उसे नब्बे की दहाई तक प्राप्त था, कभी का खत्म हो चुका है। कला हो या साहित्य, भोपाल का मामला सीधे जवानी से बुढ़ापे का सा लगता है और सहमति-विरोध अपनी जगह, सच यह है कि अशोक वाजपेयी के 'हाथी' से दूसरा कोई उपयोगी कम नहीं ले सका, सजावट के लिए तो जो आता है, वह इस्तेमाल करने की कोशिश करता ही है।
तो यह है, संक्षेप में, वह भोपाल जिसे मैंने देखा जाना। सत्येन कुमार, शानी, दुष्यंत त्यागी, शरद जोशी, सोमदत्त, फ़जल ताबिश और किसी दम के लिए निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती, दिलीप चित्रे, कृष्ण बलदेव वैद और जे. स्वामीनाथन तथा वी.बी. कारथ तथा विजय मोहन सिंह का भोपाल। बड़े लोग किसी एक जगह रुक कर कहाँ बैठते हैं। इन लोगों के जाने के बाद भी लोग भोपाल में हैं, लेकिन वह इस तरह, बिना कोशिश किये, याद नहीं आ पाते।
शायद कुछ बेहतर हो और भोपाल का कलाजगत भी उसी अनुपात में फैले-बढ़े, जैसे यह बाक़ी शहर इसी दुआ के साथ।
'अकार' अप्रैल से जुलाई 2009 में संकलित
मंज़ूर एहतेशाम
1973 में प्रकाशित 'रमजान में मौत' मंज़ूर एहतेशाम की पहली कहानी थी और 1976 में 'कुछ दिन और' नाम से आपका पहला उपन्यास प्रकाशित हुआ था। 'सूखा बरगद' के लिए आपको श्रीकांत वर्मा पुरस्कार से सम्मानित किया गया। राही मासूम रज़ा की तरह ही मंज़ूर एहतेशाम ने अपनी रचनाओं के माध्यम से अल्पसंख्यक समुदाय को यर्थाथवादी ढंग से प्रस्तुत किया है। भारतीय भाषा परिषद, वीरसिंह देव सम्मान के साथ पहल सम्मान से भी सम्मानित। वर्ष 2000 में शिखर सम्मान के साथ 2003 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
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