Saturday, April 25, 2009

ओ पिता हमें क्षमा करना

आत्मा बेच आया हूँ
और उदास हूँ
ओ पिता हमें क्षमा करना.

पूछो कितने में?
तो सौदा बहुत सस्ता था
अनमोल नगीना
बेमोल बिक गया
बेकीमत ही समझो
चंद सुविधाएँ
चंद बेफ्रिकी
और महीने की पगार
बस यही मोल था
एक अदद ज़मीर का.

आत्मा थी जागृत
तो थीं तमाम दिक्कतें
बेवजह उठ खड़े होते थे सवाल
कुछ अच्छा तो
बहुत कुछ बुरा लगता
भीतर जैसे
आग भभक उठती थी
अब किस्सा ही खत्म
न बची आत्मा
न उठेगा सवाल.

सोचता हूँ अब चैन में रहूंगा
कुछ भी होता हो
सही-गलत के प्रश्न
अब न उठेंगे
उचित अनुचित का फर्क
अब न होगा
क्या ऐसा हो पायेगा?

ओ पिता
इसी दुनिया और इसी समय में
तुमने मिसाल कायम की थी
एक साम्राज्य के खिलाफ
आत्मा को ज़िंदा रखा था
और विजय पाई थी
भय पर - क्रोध पर - इच्छाओं पर
क्या यही भाव
इंसान को कमजोर नहीं बनाते?
और वह करता है समझौते
सिलसिलेवार
कभी न खत्म होने वाली
लिप्साओं की खातिर
रोज़-रोज़ मरता है.

ओ पिता
तुम्हारे पथ पर
तमाम लोग चले हैं
उनके नाम
विनोबा भावे, बाबा आमटे
और हाल ही की मेधा पाटकर
हो सकते हैं
इनके कामों के नतीजे
बहुत उम्मीद नहीं जगाते
इन नामों को सुनकर
ऊर्जा का संचार नहीं होता
इनका सामना
काले-ऍंग्रेजों से है
क्या यही वजह है कि
इनकी सफलता संदिग्ध है.

ओ पिता
हमें माफ करना
हमारी पशु-वृत्ति
बारम्बार जाग उठती है
और परिणाम में
हमारे निर्णय
शरीर-हित में होते हैं.

झूठे शब्द
और खोखली बातें
हो गई हैं हमारी
पथ-प्रदर्शक
खोटे सिक्कों का अब
टकसाल पर कब्जा है
हमारे संस्कार हैं मिलावटी
और चोखे की चाह
हमने त्याग दी है
और शायद इसीलिए
निराशा के विरल क्षणों में
इंसान बेचता है ज़मीर
जैसे मैं बेच आया हूँ
सस्ते दाम
ओ पिता हमें क्षमा करना.

Monday, April 20, 2009

दोराहा

मूँग की बड़ी डालते समय
उठा यह सवाल
कि इसमें कद्दू डालें या लौकी
वह थी अनजान
मैं भी सिफर

यह पहेली बूझने
उसने अपनी सास को फोन लगाया
वहाँ से उत्तर पाया
जो ठीक लगे डालो
साथ ही कहा
चलो अच्छा है
घर-गृहस्थी में
मन तो लगा तुम्हारा

पहेली अबूझी रही आयी
और मुँह बाये खड़ी रही
अब उसने
माँ को फोन लगाया
वह बोली
काहे परेशान होती हो
बाजार दर्जनों तरह की
बड़ियों से भरे हैं
जो मर्जी आये उठा लाओ

अब वह दोराहे पर थी
उलझन ने बस
रूप बदल लिया था.